Sat, Jun 29, 2013 at 12:14 PM
27वाँ ग्रीष्म कालीन संगीत नाट्य शिविर २०१३
(नॄत्य संगीत प्रशिक्शण केन्द्र सिकन्दरा,आगरा २८२००७)
समापन कार्यक्रम एवं पुरुस्कार वितरण समारोह
माननीय श्री प्रेम चन्द जैन,संचालक,रतन प्रकाशन के कर कमलों द्वारा
दिनांक :३०जून २०१३ अपरान्ह ३बजे
"मानस भवन"नागरी प्रचारिणी सभागार (आगरा कालेज के सामने)एम०जी०रोड,आगरा
पर सम्पन्न होगा, आपकी उपस्थिति प्रार्थनीय है !
प्रायोजक: विनीत:
कस्तूरिया कैरियर एन्ड बिज़निस कन्सल्टैन्ट मीरा कस्तूरिया(प्राचार्या)
२०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा
९४१२४४३०९३,८९२३००८१६१ ९२१९५३०७२४
Saturday, June 29, 2013
Friday, June 28, 2013
उत्तराखंड आकस्मिक बाढ़-
28-जून-2013 11:36 IST
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा दी गई सहायता
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री श्री गुलाम नबी आजाद ने उत्तराखंड में अचानक आई बाढ़ में स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में आज नई दिल्ली में जानकारी दी।
1. मंत्रालय के एक तीन सदस्यीय उच्च स्तरीय दल को देहरादून में तैनात किया गया है ताकि वे जन स्वास्थ्य की स्थितियों का आकलन करें और जैसे भी सहायता की आवश्यकता हो उसके लिए राज्य के स्वास्थ्य अधिकारियों के साथ समन्वय स्थापित करें। इसके सदस्य हैं राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र के निदेशक डॉ. एल.एस. चौहान (एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम के लिए उत्तरदायी, जिसमें रोग निगरानी तथा इसके फैलाव पर नियंत्रण के लिए तकनीकी सहायता देना), निदेशक आपातकालीन चिकित्सा सहायता- डॉ. पी. रवीन्द्ररन (महामारी फैलने को रोकने तथा आपदा सहायता तथा प्रबंधन के लिए उत्तरदायी) तथा राष्ट्रीय वेक्टर बोर्न बीमारी नियंत्रण कार्यक्रम के संयुक्त निदेशक डॉ. के.एस. गिल।
2. स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक डॉ. जगदीश प्रसाद और स्वास्थ्य विभाग के अपर सचिव श्री आर.के. जैन कल देहरादून का दौरा करेंगे ताकि स्थितिकी समीक्षा की जा सके और राज्य के स्वास्थ्य अधिकारियों के साथ समन्वय बनाया जा सके।
3. प्रभावित क्षेत्रों से जल जनित, खाद्य या वायु या सीधे संपर्क से किसी बीमारी की घटना की खबर नहीं है।
4. तीन ट्रक दवाईयां वहां भेजी गई है।
5. उत्तराखंड में डॉक्टरों की छह केंद्रीय टीम तैनात है।
6. केंद्रीय जन स्वास्थ्य की तीन टीमें वहां भेजी गई है। एक टीम गोचर में, दूसरी जोशीमठ और तीसरी अभी सड़क बंद होने के कारण रूद्रप्रयाग में रूकी हुई है।
7. निमहांस बंगलोर की तीन टीम वहां आपदा प्रभावित लोगों को मनोवैज्ञानिक-सामाजिक सहायता के लिए भेजी गई है। प्रत्येक टीम में तीन-तीन डाक्टर हैं।
8. उत्तराखंड सरकार की सहायता के लिए तीन विशेषज्ञ क्लिनिसियंश की टीमें भेजी गई हैं। एक टीम में दो मेडिसिन विशेषज्ञ हैं। एक टीम में दो कार्डियोलॉजिस्ट हैं जबकिएक अन्य टीम में दो साइकैटीरिस्ट हैं।
9. इसके अतिरिक्त उत्तराखंड सरकार के अनुरोध पर जब भी आवश्यकता हो तैनात किए जाने के लिए 40 मेडिकल अधिकारियों का एक पूल बनाया गया है।
10. आपदा आते ही भारतीय रेड क्रास सोसाइटी को सभी संभव सहायता मुहैया कराने का निदेश दिया गया।
11. राष्ट्रीय मुख्यालय से दो टीमें 19 जून, 2013 उत्त्रकाशी और पिथौरागढ़ में तैनात हैं।
12. एक उच्च स्तरीय दल ने राज्य के रेड क्रास सोसाइटी के साथ समन्वय के लिए उत्त्तराखंड का दौरा किया।
13. सात ट्रक चिकित्सा संबंधी वस्तुए मुहैया कराई गईं।
14. राष्ट्रीय आपदा सहायता बल की आठ टीम तैनात की गईं।
15. 300 से 400 कर्मी प्राथमिक चिकित्सा प्रदान करने के काम में लगे हैं।
16. दो हजार फैमिली पैक भेजे गए जिनमें तिरपाल, मच्छरदानी और बर्तन के सेट शामिल हैं। प्रत्येक फैमिली पैक 15 दिनों के लिए पर्याप्त है।
17. एक हजार टेंट मुहैया कराए गए।
18. तीन हजार अतिरिक्त तिरपाल और तीन सौ कैरोसिन लैम्प भेजे गए।
19. रेड क्रास द्वारा 11 सौ बॉडी बैग्और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 500 बॉडी बैग्भेजे गए। कुल मिलाकर 1600 बैग पहुंचे।
20. जल स्वच्छता इकाई को स्वयं सेवकों के साथ इनके संचालन के लिए तैनात किया जा रहा है। एक यूनिट प्रतिघंटे तीन हजार से चार हजार स्वच्छ पेय जल उत्पादन करने में सक्षम है।
21. रेड क्रास के राहत उपायों को संयोजित करने के लिए भारतीय रेड क्रास सोसाइटी के महासचिव डॉ. एस. पी. अग्रवाल कल उत्तराखंड का दौरा कर रहे हैं।
****
वि. कासोटिया/अजीत/राजीव – 2944
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा दी गई सहायता
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री श्री गुलाम नबी आजाद ने उत्तराखंड में अचानक आई बाढ़ में स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में आज नई दिल्ली में जानकारी दी।
दैनिक पंजाब केसरी में प्रकाशित खबर की तस्वीर |
2. स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक डॉ. जगदीश प्रसाद और स्वास्थ्य विभाग के अपर सचिव श्री आर.के. जैन कल देहरादून का दौरा करेंगे ताकि स्थितिकी समीक्षा की जा सके और राज्य के स्वास्थ्य अधिकारियों के साथ समन्वय बनाया जा सके।
3. प्रभावित क्षेत्रों से जल जनित, खाद्य या वायु या सीधे संपर्क से किसी बीमारी की घटना की खबर नहीं है।
4. तीन ट्रक दवाईयां वहां भेजी गई है।
5. उत्तराखंड में डॉक्टरों की छह केंद्रीय टीम तैनात है।
6. केंद्रीय जन स्वास्थ्य की तीन टीमें वहां भेजी गई है। एक टीम गोचर में, दूसरी जोशीमठ और तीसरी अभी सड़क बंद होने के कारण रूद्रप्रयाग में रूकी हुई है।
7. निमहांस बंगलोर की तीन टीम वहां आपदा प्रभावित लोगों को मनोवैज्ञानिक-सामाजिक सहायता के लिए भेजी गई है। प्रत्येक टीम में तीन-तीन डाक्टर हैं।
8. उत्तराखंड सरकार की सहायता के लिए तीन विशेषज्ञ क्लिनिसियंश की टीमें भेजी गई हैं। एक टीम में दो मेडिसिन विशेषज्ञ हैं। एक टीम में दो कार्डियोलॉजिस्ट हैं जबकिएक अन्य टीम में दो साइकैटीरिस्ट हैं।
9. इसके अतिरिक्त उत्तराखंड सरकार के अनुरोध पर जब भी आवश्यकता हो तैनात किए जाने के लिए 40 मेडिकल अधिकारियों का एक पूल बनाया गया है।
10. आपदा आते ही भारतीय रेड क्रास सोसाइटी को सभी संभव सहायता मुहैया कराने का निदेश दिया गया।
11. राष्ट्रीय मुख्यालय से दो टीमें 19 जून, 2013 उत्त्रकाशी और पिथौरागढ़ में तैनात हैं।
12. एक उच्च स्तरीय दल ने राज्य के रेड क्रास सोसाइटी के साथ समन्वय के लिए उत्त्तराखंड का दौरा किया।
13. सात ट्रक चिकित्सा संबंधी वस्तुए मुहैया कराई गईं।
14. राष्ट्रीय आपदा सहायता बल की आठ टीम तैनात की गईं।
15. 300 से 400 कर्मी प्राथमिक चिकित्सा प्रदान करने के काम में लगे हैं।
16. दो हजार फैमिली पैक भेजे गए जिनमें तिरपाल, मच्छरदानी और बर्तन के सेट शामिल हैं। प्रत्येक फैमिली पैक 15 दिनों के लिए पर्याप्त है।
17. एक हजार टेंट मुहैया कराए गए।
18. तीन हजार अतिरिक्त तिरपाल और तीन सौ कैरोसिन लैम्प भेजे गए।
19. रेड क्रास द्वारा 11 सौ बॉडी बैग्और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 500 बॉडी बैग्भेजे गए। कुल मिलाकर 1600 बैग पहुंचे।
20. जल स्वच्छता इकाई को स्वयं सेवकों के साथ इनके संचालन के लिए तैनात किया जा रहा है। एक यूनिट प्रतिघंटे तीन हजार से चार हजार स्वच्छ पेय जल उत्पादन करने में सक्षम है।
21. रेड क्रास के राहत उपायों को संयोजित करने के लिए भारतीय रेड क्रास सोसाइटी के महासचिव डॉ. एस. पी. अग्रवाल कल उत्तराखंड का दौरा कर रहे हैं।
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वि. कासोटिया/अजीत/राजीव – 2944
INDIA: पूर्वांचल:
जहाँ बच जाना मौत से भी बदतर सजा है
An Article by the Asian Human Rights Commission --अविनाश पाण्डेय
प्राकृतिक आपदाएं बता कर नहीं आतीं, न ही अक्सर उनका सटीक पूर्वानुमान कर पाना संभव होता है. इसीलिए उनसे जानमाल का नुकसान होना लाजमी है, पर यह नुकसान कितना होगा यह आपदाओं से निपटने की प्रशासनिक क्षमता और तैयारी पर निर्भर करता है. इस नजरिये से देखें तो हजारों नागरिकों की बलि ले लेने वाली उत्तराखंड बाढ़ ने केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के दावों की पोल खोल कर रख दी है. सुनामी से हुए भारी नुकसान के बाद एक ऐसी ही आपदाओं से निपटने के लिए सीधे केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन बनाई गए भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के बाद भी इस स्तर पर जानमाल का नुक्सान केवल अक्षम्य ही नहीं बल्कि आपराधिक भी है.
पर फिर, यह आपदा सरकार भारत के आम नागरिकों की ऐसे ही बड़े स्तर पर जान लेने वाली अक्षम्य और आपराधिक लापरवाहियों के लिए बड़ी ढाल भी बन गयी है. आखिर कितने लोग जान पाए होंगे कि उत्तराखंड में आई बाढ़ के पहले ही उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल में ऐसी ही एक आपदा 118 बच्चों की बलि ले चुकी थी और अंदेशा है कि मानसून के जाते जाते यह संख्या 1000 के पार होगी. यह भी कि दिमागी या जापानी बुखार (इन्सेफ़्लाइटिस) के नाम से जाने जानी वाली यह आपदा हर साल आती है. वह भी बिना बताये नहीं बल्कि ऐलानिया आये मेहमान की तरह मानसून के साथ आती है और हजारों बच्चों की जान ले जाती है. यह सब तब, जब इस बीमारी का इलाज भी है और टीका भी. और सबसे महत्वपूर्ण यह सब राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की जानकारी में होता है जो न सिर्फ लगातार इस आपदा पर नजर रखे हुए है बल्कि 2011 में इलाके का दौरा भी कर चुकी है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ बीते साल इस बीमारी ने 1256 बच्चों की जान ली थी. गैरसरकारी आंकड़ों की मानें तो यह संख्या 1480 होती है. हकीकत में यह संख्या कहीं बड़ी हो सकती है क्योंकि यह आंकडे भले ही सिर्फ मरने के लिए अस्पताल पंहुचने में सफल रहे भाग्यशाली बच्चों पर आधारित होती है. भाग्यशाली इसलिए क्योंकि जीवन भले ही न बचे इन बच्चों का कष्ट जरुर थोड़ा कम हो जाता है. खैर, इन मौतों में 557 अकेले उत्तरप्रदेश में हुई थीं. उनमे भी 500 से ज्यादा सिर्फ एक अकेले नेहरु अस्पताल में जो बीआरडी मेडिकल कालेज से सम्बद्ध है.
वजह यह कि पूरे पूर्वांचल में दिमागी बुखार का इलाज कर पाने की सुविधा वाला यह इकलौता अस्पताल है. न, वस्तुतः यह दिमागी बुखार का इलाज कर पाने की सुविधा वाला इकलौता अस्पताल है जिसमे डॉक्टर भी हैं. पिछले साल राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग से तीखी डांट सुनने के बाद सरकार ने कुछ कदम उठाये थे. तब आयोग ने महामारी से हुई मौतों का संज्ञान लेते हुए सरकारी कदमों को 'दावे से ज्यादा कुछ नहीं' बताते हुए सरकार के 'लापरवाह नजरिये' को मौतों का इकलौता जिम्मेदार बताया था. सरकार की आपराधिक अभियोज्यता को इतने साफ़ शब्दों में इंगित करते आयोग के बयान के बाद सरकार ने कुशीनगर के जिला अस्पताल में चौबीस घंटे इलाज की सुविधाएं मुहैया कराने का वादा किया था. पर नवम्बर 2012 में मौके पर पंहुचे मीडिया को न तो वहां चिकत्सक मिले न आईसीयू. अब ऐसे में सरकारी उपायों की अगम्भीरता को लेकर कोई संशय बचता है? अब जिला अस्पताल के इस हाल में होने पर प्राथमिक और सामुदायिक चिकित्सा केन्द्रों से कोई उम्मीद कैसे पाली जा सकती है. और यह सब तब था जबकि पिछले वर्ष नंबर माह के पहले ही केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री ने प्रदेश में 501 बच्चों की मृत्यु की बात संसद में स्वीकार की थी.
यहाँ से देखें तो मानसून की शुरुआत से पहले ही जा चुकी 118 जानें स्थिति के और भयावह होने की ही तरफ इशारा कर रही हैं क्योंकि मस्तिष्क ज्वर से होने वाली मौतें मानसून के चरम के साथ उफान लेती हैं. ऐसा नहीं है कि प्राकृतिक आपदाओं की तरह सरकार को इस आपदा का पूर्वानुमान नहीं था. इसके ठीक विपरीत, 54 सेंटिनल और 12 अपेक्स रिफरल प्रयोगशालाओं के साथ सरकार के पास इस बीमारी की निगरानी और रोकथाम दोनों के पूरे उपाय हैं. अब हर साल होने वाली हजार से ज्यादा मौतों के साथ आप खुद ही समझ सकते हैं कि यह केंद्र करते क्या हैं.
विडम्बना यह है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2006 में ही स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को इसे 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातस्थिति' घोषित करने और इससे निपटने के लिए ठोस कार्य योजना बनाने का आदेश दिया था. कहने की जरुरत नहीं है कि निर्देशों का पालन करने की अनिवार्यता न होने के नुक्ते का फायदा उठाकर दोनों ने कुछ नहीं किया. खैर, साल दर साल तबाही मचाने वाली इस आपदा पर न्यायपालिका के निर्देश की उपेक्षा करना आसान है पर कम से कम चुनावों के समय कुछ करते हुए दिखने की मजबूरी में २०११ में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आज़ाद को इस विभीषिका की तुलना महामारी से करनी पड़ी थी. उन्होंने यह भी माना था कि मच्छरों से फैलने वाली इस बीमारी से निपटने के लिए गन्दा पानी जमा होने वाली जगहों को भी देखना पड़ेगा और उसके लिए स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ ही ग्रामीण विकास और जल प्रबंधन मंत्रालयों को भी साथ लेते हुए ठोस कार्यवाही करनी होगी. पर फिर, कुछ नहीं हुआ.
वायदे तो खैर वर्तमान राज्य सरकार ने भी बहुत किये थे. पर वह जागी बस अप्रैल में जब मुख्य सचिव जावेद उस्मानी ने बैठक कर सम्बद्ध अधिकारियों को इन्सेफ्लाईटिस से निपटने के लिए बनाई गयी सभी योजनाओं को समय पर पूरा करने का निर्देश दिया. पर तब तक बहुत देर हो चुली थी. न तो बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इस बीमारी के लिए बनाया जा रहा १०० बिस्तरों वाला विशेष वार्ड बनकर तैयार हुआ था न ही बीमारी का शिकार हो सकने वाले ३० लाख संभावित लोगों को टीका लगाने की योजना कहीं पंहुची थी. वैसे टीके लग भी जाते तो कुछ ख़ास हासिल होने वाला नहीं था क्योंकि इस टीके को साल भर बाद दोहराना पड़ता है और खुद इलाके के डॉक्टर मानते हैं कि यह कभी नहीं हुआ.
अफ़सोस यह कि इस बीमारी के बारे में सबसे खतरनाक बात इसका शिकार होकर मर जाना नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि इससे बचकर जीवन भर के लिए शारीरिक और मानसिक अपंगता के साथ जीने को अभिशापित हो जाना उससे भी बुरा होता है. सिर्फ बीआरडी मेडिकल कालेज के आंकड़े देखें तो इस बीमारी ने ३५००० बच्चों की जान लेने के साथ करीब २०००० बच्चों को हमेशा के लिए विकलांग भी बना दिया है. पहले से ही गरीबी की मार झेल रहे परिवारों में इन विकलांग बच्चों की जिंदगी एक हादसा बन कर रह जाती है. आखिर खुद को जिन्दा रखने की बुनियादी जद्दोजहद में लगे यह परिवार इन बच्चों के लालन पालन और चिकित्सा का अतरिक्त 'बोझ' चाहें भी तो कैसे झेल सकते हैं?
इसीलिए गोरखपुर और आसपास के रेलवे स्टेशनों, बाजारों और भीड़भाड़ वाली अन्य जगहों में ऐसे बच्चों का लावारिस हाल में मिलना बहुत ही सामान्य घटना है. त्रासदी ही है कि अपने बच्चों को न छोड़ने वाले परिजनों के सगे सम्बन्धियों का उन्हें ऐसा करने की सलाह देना इससे भी सामान्य है.
कोई चाहे तो ऐसे 'निर्मम' परिजनों को कोस ही सकता है. पर सच यह है इसके लिए वे नहीं बल्कि पूरी तरह से वह व्यवस्था ही दोषी है जिसे बाल आयोग ने इन बच्चों की मौतों का 'इकलौता जिम्मेदार' बताया था. वित्तीय कमी की वजह से आज तक टीकाकरण न कर पाने का रोना रोने वाली यह सरकार ही है जो 1978 से आज तक मारे गए इन ५०००० से भी ज्यादा बच्चों की मौत जिम्मेदार है. सोचिये उस अक्षम्य प्रशासनिक लापरवाही के बारे में जो आजतक जिला स्तर तक पर इस बीमारी से निपटने में सक्षम अस्पताल तक नहीं बना सकी है. उस सरकार के बारे में जो मच्छरों की पैदाइश वाली जलभराव वाली जगहों को साफ़ तक नहीं कर पाती है. बस यह कि इसी सरकार के पास लैपटॉप बांटने और पार्क और मूर्तियाँ बनाने का पैसा जरुर होता है. इन मौतों के लिए १९७८ से आज तक केंद्र और राज्य में रही सभी सरकारें दोषी हैं क्योंकि उनमे से किसी के लिए सुदूर पूर्वांचल के यह बच्चे प्राथमिकता पर नहीं थे.
बावजूद इसके कि वह भारतीय संविधान के आदेशानुसार इन बच्चों को बचाने के लिए वचनवद्ध हैं. अपने बाकी बच्चों को बचाने के लिए एक को छोड़ने को मजबूर गरीब माँ का दर्द समझने की कोशिश करिए और आप समझ जायेंगे कि वंचितों को त्याज्य समझने वाली व्यवस्था दोषी है. दोषी तो खैर इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी है जो दिल्ली में जेसिका लाल के लिए तो लड़ लेती है पर जिसके लिए कैमरों की पंहुच से दूर गोरखपुर में मर रहे गरीबों के मुद्दे पर अभियान चलाना नहीं सूझता. दोषी वह सभ्य समाज (सिविल सोसायटी) भी है जिसे बच जाने को मरने से बदतर संभावना बना चुका यह इलाका नहीं दिखता. खैर, आइये, मानसून के खत्म होने तक लाशें गिनते हैं.
*An abridged version of this article published in the national edition of Dainik Jagran, a leading Hindi daily of India on 28th June, 2013.
About the Author: Mr. Pandey, alias Samar, is Programme Coordinator, Right to Food Programme, AHRC. He can be contacted atfoodjustice@ahrc.asia
About AHRC: The Asian Human Rights Commission is a regional non-governmental organisation that monitors human rights in Asia, documents violations and advocates for justice and institutional reform to ensure the protection and promotion of these rights. The Hong Kong-based group was founded in 1984.
चुटका संघर्ष – सरकार का नया हमला
Fri, Jun 28, 2013 at 1:22 AM
भोपाल में लड़ाई की तैयारी बैठक
प्रिय साथी,
चुटका परमाणु संयंत्र के मसले पर सरकार ने एक बार फिर हमले की योजना तैयार कर ली है जिसके तहत 31 जुलाई को मानेगांव (चुटका के पास स्थित एक गांव) में जन-सुनवाई की घोषणा मंडला कलेक्टर द्वारा जारी की गई है। (अटैचमेंट देखें)।
इसे देखते हुए हम सभी को अभी से बड़ी तैयारी करनी होगी क्योंकि यह संभव है कि पिछली जन-सुनवाई को जनता के दबाव में रद्द करने के बाद पूरे घटनाक्रम से सबक लेते हुए सरकार भी पूरी तैयारी के साथ सामने आएगी।
इससे पहले 8 जून को भोपाल में हुई बैठक में भी हम सबने मिल कर चुटका परमाणु संयंत्र और परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के खिला व्यापक प्रचार के लिए कुछ प्रस्तावों पर सहमति बनाई थी। ये प्रस्ताव थें –
1. भोपाल और आसपास के नर्मदा नदी के किनारे बसे शहरों व कस्बों में चुटका परमाणु संयंत्र व परमाणु-ऊर्जा के खिलाफ लगातार जन-शिक्षण अभियान चलाने का प्रस्ताव।
2. परमाणु-ऊर्जा के खिलाफ चुटका से भोपाल तक यात्रा के आयोजन का प्रस्ताव।
3. चुटका परमाणु संयंत्र व परमाणु-ऊर्जा के खिलाफ इस आंदोलन को देश भर में चल रहे परमाणु-ऊर्जा विरोधी आंदोलनो से जोड़ते हुए इसे और भी मजबूत करने के उद्देश्य से 28 सितम्बर 2013 को भोपाल में ‘परमाणु ऊर्जा के खिलाफ जन-संसद’ के आयोजन का प्रस्ताव।
इन प्रस्तावों को अमली जामा पहनाने के लिए और इसके लिए पूरी तैयारी की रूपरेखा तय करने के लिए 29 जून (शनिवार) को भोपाल में मीटिंग तय की गई थी (इस बावत सभी साथियों को 9 जून को मेल किया गया था)।
अब जबकि जन-सुनवाई की नई तारीख की घोषणा हो चुकी है, हमें अलग तरह से और तेजी से तैयारी करनी होगी। इसके लिए हम सभी 29 जून (शनिवार) को प्लॉट न. 8, पत्रकार कॉलोनी, भोपाल में सुबह 11 बजे मिल कर बातचीत करेंगे और आगे की लड़ाई की योजना बनाएंगे।
आपसे गुजारिश है कि इस बैठक में जरूर शामिल हों और अपने विचारों से इस लड़ाई को समृद्ध और मजबूत करें।
जिंदाबाद,
लोकेश मालती प्रकाश
शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल
भोपाल में लड़ाई की तैयारी बैठक
प्रिय साथी,
चुटका परमाणु संयंत्र के मसले पर सरकार ने एक बार फिर हमले की योजना तैयार कर ली है जिसके तहत 31 जुलाई को मानेगांव (चुटका के पास स्थित एक गांव) में जन-सुनवाई की घोषणा मंडला कलेक्टर द्वारा जारी की गई है। (अटैचमेंट देखें)।
इसे देखते हुए हम सभी को अभी से बड़ी तैयारी करनी होगी क्योंकि यह संभव है कि पिछली जन-सुनवाई को जनता के दबाव में रद्द करने के बाद पूरे घटनाक्रम से सबक लेते हुए सरकार भी पूरी तैयारी के साथ सामने आएगी।
इससे पहले 8 जून को भोपाल में हुई बैठक में भी हम सबने मिल कर चुटका परमाणु संयंत्र और परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के खिला व्यापक प्रचार के लिए कुछ प्रस्तावों पर सहमति बनाई थी। ये प्रस्ताव थें –
1. भोपाल और आसपास के नर्मदा नदी के किनारे बसे शहरों व कस्बों में चुटका परमाणु संयंत्र व परमाणु-ऊर्जा के खिलाफ लगातार जन-शिक्षण अभियान चलाने का प्रस्ताव।
2. परमाणु-ऊर्जा के खिलाफ चुटका से भोपाल तक यात्रा के आयोजन का प्रस्ताव।
3. चुटका परमाणु संयंत्र व परमाणु-ऊर्जा के खिलाफ इस आंदोलन को देश भर में चल रहे परमाणु-ऊर्जा विरोधी आंदोलनो से जोड़ते हुए इसे और भी मजबूत करने के उद्देश्य से 28 सितम्बर 2013 को भोपाल में ‘परमाणु ऊर्जा के खिलाफ जन-संसद’ के आयोजन का प्रस्ताव।
इन प्रस्तावों को अमली जामा पहनाने के लिए और इसके लिए पूरी तैयारी की रूपरेखा तय करने के लिए 29 जून (शनिवार) को भोपाल में मीटिंग तय की गई थी (इस बावत सभी साथियों को 9 जून को मेल किया गया था)।
अब जबकि जन-सुनवाई की नई तारीख की घोषणा हो चुकी है, हमें अलग तरह से और तेजी से तैयारी करनी होगी। इसके लिए हम सभी 29 जून (शनिवार) को प्लॉट न. 8, पत्रकार कॉलोनी, भोपाल में सुबह 11 बजे मिल कर बातचीत करेंगे और आगे की लड़ाई की योजना बनाएंगे।
आपसे गुजारिश है कि इस बैठक में जरूर शामिल हों और अपने विचारों से इस लड़ाई को समृद्ध और मजबूत करें।
जिंदाबाद,
लोकेश मालती प्रकाश
शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल
Sunday, June 23, 2013
Tere Khushboo Mein Base Khat
A Sweet voice of Jagjit Singh
Published on Jan 28, 2013
Song: Tere Khushboo Mein Base Khat
Singer: Jagjit Singh
Music Director: Jagjit Singh
Lyricist: Rajindarnath Rahbar
Singer: Jagjit Singh
Music Director: Jagjit Singh
Lyricist: Rajindarnath Rahbar
‘गठबन्धन की मजबूरी’ पर राजीव गुप्ता
Sat, Jun 22, 2013 at 11:47 PM
सिद्धांत, शिष्टाचार और अवसरवादी-राजनीति
भारत की गठबन्धन-राजनीति के गलियारों मे अक्सर ‘गठबन्धन की मजबूरी’ का जुमला सुनने को मिल ही जाता है. इस जुमले का सहारा लेकर आये दिन राजनेता गंभीरतम बातों की भी हवा निकाल देते है. अब सवाल यह उठता है कि क्या गठबन्धन किसी सिद्धांत पर बनाये जाते है अथवा सत्ता का स्वाद चखने हेतु समझौते किये जाते है ? हमे ध्यान रखना चाहिये कि सिद्धांत और समझौता दो अलग-अलग बाते है. राजनैतिक-समझौते को हम कर्नाटक की राजनीति से समझ सकते है. एक समय में कर्नाटक में भाजपा और जनता दल सेकुलर ने मिलकर चुनाव लडा और दोनो दलों के बीच यह समझौता हुआ कि दोनो दल बारी-बारी से सरकार चलायेंगे. समझौतानुसार एच.डी. देवगौडा के सुपुत्र एच.डी. कुमारस्वामी मुखयमंत्री बने, पर जब भाजपा के यद्दयुरप्पा की मुख्यमंत्री बनने की बारी आयी तो जनता दल सेकुलर ने समझौता तोडकर भाजपा के साथ विश्वासघात करते हुए यद्दयुरप्पा को मुख्यमंत्री बनने से रोक दिया. नीतीश कुमार की सिद्धांत की नई व्याख्यानुसार सिद्धांत समझने के लिये हमे अभी हाल ही मे राजग से जनता दल यूनाईटेड के अलगाव को देखना चाहिये. नीतीश कुमार द्वारा राजग से उनके अलगाव का प्रमुख कारण भाजपा का ‘सिद्धांत से भटकाव’ है और उनकी पार्टी सिद्धांतो से समझौता नही कर सकती.
ध्यानदेने योग्य है कि 16 जून को जनता दल (यू) के अध्यक्ष ने सैद्धांतिक आधार पर राजग से अलग होने की घोषणा की थी. इसके चलते नीतीश कुमार की सरकार ने 19 जून को कांग्रेस, सीपीएम और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से बिहार विधानसभा में विश्वासमत हासिल कर लिया. नीतीश सरकार के पक्ष में 126 वोट और विपक्ष में 24 वोट पडे जबकि भारतीय जनता पार्टी के 91 सदस्यों और लोकजनशक्ति के 1 विधायक ने सदन का वाकआउट किया. नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा मे लगभग आधे घंटे का एक भाषण दिया. यह भाषण इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमे नीतीश कुमार ने सिद्धांत और शिष्टाचार पर बहुत अधिक जोर दिया. राजग के साथ अपने 17 वर्षों के संबंध–विच्छेद पर वो सदन को बता रहे थे कि उन्होने सैद्धांतिक आधार पर राजग से अलग होने का फैसला किया. जनता दल (यू) के नेताओं के अनुसार उनके राजग मे शामिल होने का “सिद्धांत” यही था कि भाजपा पहले अपने एजेंडे में तीन विवादित बातों – राममन्दिर, धारा 370 और एक समान नागरिक संहिता को अलग करे तो वे उसके साथ सरकार बनाने मे सहयोग करेंगे. ऐसा ही हुआ और केन्द्र मे राजग की सरकार बनी. परंतु जनता दल (यू) के राजग से अलग होने पर अब देश भ्रमित हो गया है साथ ही जनता दल (यू) के द्वारा की जा रही ‘सिद्धांत की बातें’ किसी के गले से नही उतर रही. कारण बहुत साफ है कि आज जिन सिद्धांतों की दुहाई जनता दल (यू) दे रहा है उनमें से कौन सा ऐसा सिद्धांत है जिसे भाजपा ने तोडा हो ? भाजपा ने अबतक राजग के एजेंडे से कोई छेडछाड नही की और न ही उसने 2014 के लोकसभा-चुनाव का अपना कोई प्रधानमंत्री-पद का उम्मीदवार घोषित किया. हाँ, इतना जरूर है कि पिछले दिनों भाजपा ने गोवा मे चल रही अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सर्वसम्मति से नरेन्द्र मोदी को चुनाव समिति का अध्यक्ष बना दिया था. पर चुनाव समिति का अध्यक्ष तय करना तो हर राजनीति-पार्टी का अधिकार है. इसपर किसी दूसरे दल को आपत्ति क्यो हो यह बात समझ से परे है. नीतीश कुमार द्वारा रचित सिद्धांत की परिभाषा वास्तव मे सिद्धांत न होकर सिद्धांत की आड मे एक समझौता मात्र है और अब उन्होने भी जनता दल सेकुलर की तरह समझौता तोडकर बिहार की जनता के उस विश्वास को तोड दिया जिसके लिये बिहार की जनता ने राजग को अपना विश्वासमत दिया था.
शिष्टाचार
अब यह बात जगजाहिर हो चुकी है कि जनता दल (यू) राजग से किसी सिद्धांत के आधार पर अलग नही हुई अपितु अलगाव के पीछे भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाना नीतीश कुमार को नगवार गुजरना ही प्रमुख कारण है. जनता दल (यू) का राजग से अलग होते ही भाजपा ने भी नीतीश कुमार द्वारा वर्ष 2003 मे भुज की एक सभा मे दिये गये भाषण का एक विडियो जारी कर दिया. उस विडियों मे नीतीश कुमार खुद तत्कालीन वहाँ के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की जमकर तरीफ करते हुए उन्हे केन्द्र की राजनीति मे आने की वकालत कर रहे हैं. यहाँ हमे यह नही भूलना चाहिये कि वर्ष 2002 मे साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे मे कारसेवकों को जलाने से गोधरा मे साम्प्रदायिक दंगे भडके थे. जब वह वीडियों सार्वजनिक हुआ तो नीतीश कुमार ने सफाई देते हुए कहा कि उन्होने उस समय ऐसा “शिष्टाचार” के नाते कहा था. पर यह नही बताया कि उस “शिष्टाचार” के चलते उन्होने अपने “सिद्धांतों” से समझौता क्यों किया साथ ही रामविलास पासवान की तरह वे उस समय राजग से अलग क्यों नही हुए ? साथ ही उनकी नजर में यदि अयोध्या के विवादित ढाँचे को ध्वस्त करने के आरोपी लालकृष्ण आडवाणी पंथनिरपेक्ष है तो 2002 के गुजरात दंगो के चलते नरेन्द्र मोदी साम्प्रदायिक कैसे है ? जाहिर सी बात है कि नीतीश कुमार के सामने ऐसे कई सवाल है जो उनका पीछा हमेशा करते रहेंगे. .
अवसरवादी राजनीति
हमे यह कहने मे कोई संकोच नही होना चाहिये कि आज के राजनेता पंथनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की आड मे अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकते है. दरअसल गठबन्धन के इस दौर में अवसरवादिता की राजनीति करना आज के राजनीतिक दलों की मजबूरी बन गई है. वर्तमान परिदृश्य में नीतीश कुमार भी इसका अपवाद नही है यह उन्होने राजग से अलग होकर सिद्ध कर दिया. समता पार्टी से जनता दल (यू) तक के सफर मे नीतीश कुमार ने जार्ज़ फर्नाडीस सहित उन्हे ही सबसे पहले छोडा जिन्होने उनपर विश्वास कर उन्हे चोटी तक पहुँचाया. बिहार मे न्यूनतम मजदूरी के आंकडे देकर नीतीश कुमार बिहार-विकास की बात चाहे जितनी कर ले पर उनकी मंशा अब किसी से छुपी हुई नही है. वास्तविकता यह है कि समावेशी विकास के नाम पर नीतीश कुमार अति पिछडा व महादलित के जातीय समीकरण के चलते राजनीति की बिसात पर अपनी राजनैतिक चाल चलते हुए मुस्लिम वोट को अपनी तरफ खीचना चाहते है और अब उनका ध्यान 2014 के लोकसभा चुनाव से अधिक 2015 के बिहार विधान सभा के चुनाव पर अधिक है.
- राजीव गुप्ता, 09811558925
सिद्धांत, शिष्टाचार और अवसरवादी-राजनीति
भारत की गठबन्धन-राजनीति के गलियारों मे अक्सर ‘गठबन्धन की मजबूरी’ का जुमला सुनने को मिल ही जाता है. इस जुमले का सहारा लेकर आये दिन राजनेता गंभीरतम बातों की भी हवा निकाल देते है. अब सवाल यह उठता है कि क्या गठबन्धन किसी सिद्धांत पर बनाये जाते है अथवा सत्ता का स्वाद चखने हेतु समझौते किये जाते है ? हमे ध्यान रखना चाहिये कि सिद्धांत और समझौता दो अलग-अलग बाते है. राजनैतिक-समझौते को हम कर्नाटक की राजनीति से समझ सकते है. एक समय में कर्नाटक में भाजपा और जनता दल सेकुलर ने मिलकर चुनाव लडा और दोनो दलों के बीच यह समझौता हुआ कि दोनो दल बारी-बारी से सरकार चलायेंगे. समझौतानुसार एच.डी. देवगौडा के सुपुत्र एच.डी. कुमारस्वामी मुखयमंत्री बने, पर जब भाजपा के यद्दयुरप्पा की मुख्यमंत्री बनने की बारी आयी तो जनता दल सेकुलर ने समझौता तोडकर भाजपा के साथ विश्वासघात करते हुए यद्दयुरप्पा को मुख्यमंत्री बनने से रोक दिया. नीतीश कुमार की सिद्धांत की नई व्याख्यानुसार सिद्धांत समझने के लिये हमे अभी हाल ही मे राजग से जनता दल यूनाईटेड के अलगाव को देखना चाहिये. नीतीश कुमार द्वारा राजग से उनके अलगाव का प्रमुख कारण भाजपा का ‘सिद्धांत से भटकाव’ है और उनकी पार्टी सिद्धांतो से समझौता नही कर सकती.
ध्यानदेने योग्य है कि 16 जून को जनता दल (यू) के अध्यक्ष ने सैद्धांतिक आधार पर राजग से अलग होने की घोषणा की थी. इसके चलते नीतीश कुमार की सरकार ने 19 जून को कांग्रेस, सीपीएम और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से बिहार विधानसभा में विश्वासमत हासिल कर लिया. नीतीश सरकार के पक्ष में 126 वोट और विपक्ष में 24 वोट पडे जबकि भारतीय जनता पार्टी के 91 सदस्यों और लोकजनशक्ति के 1 विधायक ने सदन का वाकआउट किया. नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा मे लगभग आधे घंटे का एक भाषण दिया. यह भाषण इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमे नीतीश कुमार ने सिद्धांत और शिष्टाचार पर बहुत अधिक जोर दिया. राजग के साथ अपने 17 वर्षों के संबंध–विच्छेद पर वो सदन को बता रहे थे कि उन्होने सैद्धांतिक आधार पर राजग से अलग होने का फैसला किया. जनता दल (यू) के नेताओं के अनुसार उनके राजग मे शामिल होने का “सिद्धांत” यही था कि भाजपा पहले अपने एजेंडे में तीन विवादित बातों – राममन्दिर, धारा 370 और एक समान नागरिक संहिता को अलग करे तो वे उसके साथ सरकार बनाने मे सहयोग करेंगे. ऐसा ही हुआ और केन्द्र मे राजग की सरकार बनी. परंतु जनता दल (यू) के राजग से अलग होने पर अब देश भ्रमित हो गया है साथ ही जनता दल (यू) के द्वारा की जा रही ‘सिद्धांत की बातें’ किसी के गले से नही उतर रही. कारण बहुत साफ है कि आज जिन सिद्धांतों की दुहाई जनता दल (यू) दे रहा है उनमें से कौन सा ऐसा सिद्धांत है जिसे भाजपा ने तोडा हो ? भाजपा ने अबतक राजग के एजेंडे से कोई छेडछाड नही की और न ही उसने 2014 के लोकसभा-चुनाव का अपना कोई प्रधानमंत्री-पद का उम्मीदवार घोषित किया. हाँ, इतना जरूर है कि पिछले दिनों भाजपा ने गोवा मे चल रही अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सर्वसम्मति से नरेन्द्र मोदी को चुनाव समिति का अध्यक्ष बना दिया था. पर चुनाव समिति का अध्यक्ष तय करना तो हर राजनीति-पार्टी का अधिकार है. इसपर किसी दूसरे दल को आपत्ति क्यो हो यह बात समझ से परे है. नीतीश कुमार द्वारा रचित सिद्धांत की परिभाषा वास्तव मे सिद्धांत न होकर सिद्धांत की आड मे एक समझौता मात्र है और अब उन्होने भी जनता दल सेकुलर की तरह समझौता तोडकर बिहार की जनता के उस विश्वास को तोड दिया जिसके लिये बिहार की जनता ने राजग को अपना विश्वासमत दिया था.
शिष्टाचार
अब यह बात जगजाहिर हो चुकी है कि जनता दल (यू) राजग से किसी सिद्धांत के आधार पर अलग नही हुई अपितु अलगाव के पीछे भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाना नीतीश कुमार को नगवार गुजरना ही प्रमुख कारण है. जनता दल (यू) का राजग से अलग होते ही भाजपा ने भी नीतीश कुमार द्वारा वर्ष 2003 मे भुज की एक सभा मे दिये गये भाषण का एक विडियो जारी कर दिया. उस विडियों मे नीतीश कुमार खुद तत्कालीन वहाँ के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की जमकर तरीफ करते हुए उन्हे केन्द्र की राजनीति मे आने की वकालत कर रहे हैं. यहाँ हमे यह नही भूलना चाहिये कि वर्ष 2002 मे साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे मे कारसेवकों को जलाने से गोधरा मे साम्प्रदायिक दंगे भडके थे. जब वह वीडियों सार्वजनिक हुआ तो नीतीश कुमार ने सफाई देते हुए कहा कि उन्होने उस समय ऐसा “शिष्टाचार” के नाते कहा था. पर यह नही बताया कि उस “शिष्टाचार” के चलते उन्होने अपने “सिद्धांतों” से समझौता क्यों किया साथ ही रामविलास पासवान की तरह वे उस समय राजग से अलग क्यों नही हुए ? साथ ही उनकी नजर में यदि अयोध्या के विवादित ढाँचे को ध्वस्त करने के आरोपी लालकृष्ण आडवाणी पंथनिरपेक्ष है तो 2002 के गुजरात दंगो के चलते नरेन्द्र मोदी साम्प्रदायिक कैसे है ? जाहिर सी बात है कि नीतीश कुमार के सामने ऐसे कई सवाल है जो उनका पीछा हमेशा करते रहेंगे. .
अवसरवादी राजनीति
हमे यह कहने मे कोई संकोच नही होना चाहिये कि आज के राजनेता पंथनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की आड मे अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकते है. दरअसल गठबन्धन के इस दौर में अवसरवादिता की राजनीति करना आज के राजनीतिक दलों की मजबूरी बन गई है. वर्तमान परिदृश्य में नीतीश कुमार भी इसका अपवाद नही है यह उन्होने राजग से अलग होकर सिद्ध कर दिया. समता पार्टी से जनता दल (यू) तक के सफर मे नीतीश कुमार ने जार्ज़ फर्नाडीस सहित उन्हे ही सबसे पहले छोडा जिन्होने उनपर विश्वास कर उन्हे चोटी तक पहुँचाया. बिहार मे न्यूनतम मजदूरी के आंकडे देकर नीतीश कुमार बिहार-विकास की बात चाहे जितनी कर ले पर उनकी मंशा अब किसी से छुपी हुई नही है. वास्तविकता यह है कि समावेशी विकास के नाम पर नीतीश कुमार अति पिछडा व महादलित के जातीय समीकरण के चलते राजनीति की बिसात पर अपनी राजनैतिक चाल चलते हुए मुस्लिम वोट को अपनी तरफ खीचना चाहते है और अब उनका ध्यान 2014 के लोकसभा चुनाव से अधिक 2015 के बिहार विधान सभा के चुनाव पर अधिक है.
- राजीव गुप्ता, 09811558925
Saturday, June 22, 2013
लुधियाना में ब्लैकमेलिंग के आरोपी का पुलिस रिमांड
सामने आ सकते हैं कई और मामले महिला पत्रकार न्यायिक हिरासत में
लुधियाना में ई एस आई अस्पताल से सबंधित एक डाक्टर को ब्लैकमेल करने के मामले में सतीश प्रणामी को पुलिस ने ड्यूटी मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जहाँ ड्यूटी मजिस्ट्रेट ने पुलिस को सतीश परनामी का तो एक दिन का रिमांड दे दिया जबकि उसके साथ महिला साथी जसमीत कौर को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है। सूत्रों के मुताबिक फिलहाल पुलिस इस सारे प्रकरण से सबंधित हर पहलू और व्यक्ति का पता लगाना चाहती है।
पूछताछ में कई और नए मामले भी सामने आने की सम्भावना है। सुविज्ञ सूत्रों के मुताबिक इस मामले में पकड़े गए सतीश प्रणामी का अतीत भी खंगाला जा रहा है। इसी बीच प्रणामी का शिकार बने कई लोग अब खुल कर सामने आने की तैयारी में हैं। इसके साथ ही उन शिकायतों का भी पता लगाया जा रहा है जिन्हें आधार बनाकर इन तथाकथित पत्रकारों ने डाक्टर को ब्लैकमेल किय। शिकायत करने वालों के अते-पते भी पूरी गहराई से जांचे जा रहे हैं तांकि पता चल सके कि कहीं डाक्टर को दिखाए गए दस्तावेज़ फर्जी तो नहीं थे या फिर कहीं इन लोगों ने किसी की उकसाहट या दबाव में आकर तो अपनी शिकायतें नहीं दीं? शक की सूई ई एस आई अस्पताल की सबंधित डिस्पेंसरी नम्बर तीन के स्टाफ की तरफ भी घूम रही है। गौरतलब है कि इस स्टाफ में से भी कुछ लोग सबंधित डाक्टर के साथ किसी न किसी बहाने विवाद करते रहते थे। यह विवाद ही किसी न किसी तरह बाहर पहुंचा और मामल ब्लैकमेलिंग तक पहुँच गया। प्रिंट मीडिया ने इस खबर को काफी प्रमुखता से कवरेज दी थी। पंजाब के प्रमुख समाचार पत्र पंजाब केसरी ने अपनी खबर का शीर्षक दिया था,"डाक्टर को ब्लैकमेल करने वाले 2 तथाकथित पत्रकार काबू" इसके बाद अख़बार ने पूरी खबर कुछ यूं दी।
पूछताछ में कई और नए मामले भी सामने आने की सम्भावना है। सुविज्ञ सूत्रों के मुताबिक इस मामले में पकड़े गए सतीश प्रणामी का अतीत भी खंगाला जा रहा है। इसी बीच प्रणामी का शिकार बने कई लोग अब खुल कर सामने आने की तैयारी में हैं। इसके साथ ही उन शिकायतों का भी पता लगाया जा रहा है जिन्हें आधार बनाकर इन तथाकथित पत्रकारों ने डाक्टर को ब्लैकमेल किय। शिकायत करने वालों के अते-पते भी पूरी गहराई से जांचे जा रहे हैं तांकि पता चल सके कि कहीं डाक्टर को दिखाए गए दस्तावेज़ फर्जी तो नहीं थे या फिर कहीं इन लोगों ने किसी की उकसाहट या दबाव में आकर तो अपनी शिकायतें नहीं दीं? शक की सूई ई एस आई अस्पताल की सबंधित डिस्पेंसरी नम्बर तीन के स्टाफ की तरफ भी घूम रही है। गौरतलब है कि इस स्टाफ में से भी कुछ लोग सबंधित डाक्टर के साथ किसी न किसी बहाने विवाद करते रहते थे। यह विवाद ही किसी न किसी तरह बाहर पहुंचा और मामल ब्लैकमेलिंग तक पहुँच गया। प्रिंट मीडिया ने इस खबर को काफी प्रमुखता से कवरेज दी थी। पंजाब के प्रमुख समाचार पत्र पंजाब केसरी ने अपनी खबर का शीर्षक दिया था,"डाक्टर को ब्लैकमेल करने वाले 2 तथाकथित पत्रकार काबू" इसके बाद अख़बार ने पूरी खबर कुछ यूं दी।
लुधियाना: अपने आपको एक न्यूज चैनल का पत्रकार बताकर एक सरकारी डाक्टर को ब्लैकमेल करके पैसे मांगने वाले एक पुरूष व महिला को थाना डिवीजन नं. 7 की पुलिस ने काबू किया है। सरकारी डिस्पैंसरी में सेवारत डाक्टर द्वारा लोगों से पैसे लेकर इलाज करने की शिकायत मिलने पर तथाकथित पत्रकारों ने न्यूज चैनल पर खबर चलाने की धमकी देकर 10 हजार रुपए की मांग की थी।
ए.सी.पी. सतीश मल्होत्रा ने बताया कि बीते दिन फोकल प्वाइंट निकट रॉकमैन फैक्टरी स्थित ई.एस.आई. डिस्पैंसरी नं. 3 में बतौर डाक्टर काम कर रहे डा. स्वर्णजीत सिंह ने पुलिस को शिकायत दी कि एक महिला व पुरुष खुद को एम.एच. 1 चैनल का पत्रकार बताकर ब्लैकमेल कर पैसे मांग रहे हैं। डाक्टर ने शिकायत में बताया कि उक्त दोनों ने 17 जून को उसे फोन करके कहा कि तुम्हारे खिलाफ पैसे लेकर इलाज करने की शिकायत मिली है, जिस बारे हमने रिपोर्ट बना ली है व न्यूज चैनल पर चलाई जाएगी। यदि तुम हमें आकर मिलोगे तो न्यूज रोक सकते हैं। इसके बाद उन्होंने फिर 18 जून शाम को फोन करके मिलने के लिए धमकाया। इसके बाद डाक्टर ने एम.एच. 1 चैनल के स्टाफ रिपोर्टर हरमिन्द्र सिंह रॉकी से सम्पर्क किया व उक्त तथाकथित पत्रकारों बारे जानकारी मांगी जिस पर रॉकी ने ऐसे किसी भी पत्रकार के एम.एच. वन से न जुड़े होने की बात कही।
ए.सी.पी. मल्होत्रा ने बताया कि इसके बाद थाना डिवीजन नं. 7 के इंचार्ज इंस्पैक्टर सुमित सूद की अगुवाई वाली पुलिस ने जांच शुरू करके डाक्टर से फोन की डिटेल लेकर मामले की जांच शुरू कर दी। इसके लिए स्टाफ रिपोर्टर ने भी उक्त जालसाजों को काबू करने के लिए पुलिस का साथ दिया। थाना पुलिस ने डा. स्वर्णजीत सिंह के बयानों पर सतीश परनामी पुत्र देसराज, वासी जोशी नगर, हैबोवाल व जसमीत कौर पत्नी कुलतार सिंह वासी एम.आई.जी. फ्लैट सैक्टर 32 पर विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज कर लिया है।
इसी तरह दैनिक जागरण ने भी इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया। दैनिक जागरण का शीर्षक था,"पत्रकार बन सरकारी डाक्टर को कर रहे थे ब्लैकमेल"यह तीन कालमी खबर जागरण सिटी के पृष्ठ नंबर सात पर प्रकशित की गयी। दैनिक भास्कर और अन्य अख़बारों ने भी इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया।
अब देखना यह है कि लगातार बढ़ रही इस तरह की घटनायों की तह तक जाने में कौन कौन निकलता है इसके लिए ज़िम्मेदार? कैसे बनते हैं इस तरह के लोग पत्रकार? कैसी मिलते हैं इनको पहचान पत्र? क्यूं झुकते हैं सही लोग इन गलत तत्वों के सामने? इस तरह के कई सवाल हैं जिनका जवाब तलाशने का प्रयास किया जायेगा किसी अलग पोस्ट में?
मामला लुधियाना में एक डाक्टर को ब्लैकमेल करने का
ਮੀਡੀਆ ਵਿੱਚ ਅਖੌਤੀ ਪੱਤਰਕਾਰਾਂ ਦੀ ਭਰਮਾਰ ਜਾਰੀ
लुधियाना में ब्लैकमेलिंग के आरोपी का पुलिस रिमांड
मामला लुधियाना में एक डाक्टर को ब्लैकमेल करने का
ਮੀਡੀਆ ਵਿੱਚ ਅਖੌਤੀ ਪੱਤਰਕਾਰਾਂ ਦੀ ਭਰਮਾਰ ਜਾਰੀ
लुधियाना में ब्लैकमेलिंग के आरोपी का पुलिस रिमांड
Friday, June 21, 2013
दिल्ली में फिल्मोत्सव आज
80 में से चुने गए केवल दस वृतचित्र
21 जून को दिल्ली में फ़िरोजशाह रोड पर स्थित रूसी सांस्कृतिक केन्द्र में वृतचित्रों का एक विशेष फ़िल्म महोत्सव हो रहा है।
'यूथ स्पीरिट' नामक इस महोत्सव में रूसी और भारतीय युवा फ़िल्मकारों द्वारा बनाए गए दस वृतचित्र दिखाए जाएँगे। रूसी सांस्कृतिक केन्द्र की प्रमुख अधिकारी येलेना श्तापकिना ने बताया कि इस तरह के फ़िल्म महोत्सव का आयोजन पहली बार किया जा रहा है। रूसी सांस्कृतिक केन्द्र ने इसका आयोजन रूसी-भारतीय यूथ क्लब फ़ेडरेशन, दिल्ली की 'सिन्थसिज फ़िल्म फ़ोरम' नामक एक फ़िल्म सोसायटी, जगन प्रबन्ध संस्थान की जनसंचार फ़ैकल्टी और मंत्र विश्वविद्यालय के साथ मिलकर किया है। येलेना श्तापकिना ने
बताया :
इस वृतचित्र महोत्सव में भाग लेने के लिए 80 वृत्तचित्र आए थे। लेकिन महोत्सव की ज्यूरी ने सिर्फ़ दस वृत्तचित्रों को ही इस महोत्सव में दिखाने के लिए चुना। इनमें पाँच युवा फ़िल्मकार भारत के नई दिल्ली, नोयडा, अलीगढ़, मुम्बई और चेन्नई जैसे शहरों का प्रतिनिधित्त्व कर रहे हैं। रूसी फ़िल्मकारों में मास्को फ़िल्म इंस्टीट्यूट की पाँच महिला फ़िल्मकारों को शामिल किया गया है। इस वृतचित्र महोत्सव के लिए जो फ़िल्में चुनी गई हैं, वे उन तीख़ी समस्याओं के बारे में हैं, जिनपर अक्सर चर्चा की जाती है। ये फ़िल्में सामाजिक असमानता, पर्यावरण-दूषण, भ्रष्टाचार, रंगभेद या जातिभेद, बाल-अधिकारों की उपेक्षा तथा विकलांगों के बारे में हैं।
दिल्ली की 'सिन्थसिज फ़िल्म फ़ोरम' नामक एक फ़िल्म सोसायटी के संचालक और 'यूथ स्पीरिट' नामक इस वृतचित्र महोत्सव की ज्यूरी के अध्यक्ष विमल मेहता ने बताया कि दोनों देशों के युवा फ़िल्मकारों को लगभग एक जैसी समस्याएँ बेचैन करती हैं और इन समस्याओं के प्रति उनका नज़रिया भी क़रीब-क़रीब एक जैसा है। जैसे मैं अरविन्द राज शर्मा की फ़िल्म 'आई एम गिल्टी' यानी 'मैं दोषी हूँ' -- जो आवारा बच्चों के बारे में है और नियति सेंगरा व अमरेश कुमार सिंह की फ़िल्म 'प्रीस्टीन वाटर्स' यानी 'पवित्र जल' का ज़िक्र करना चाहूँगा, जो भारत की नदियों के प्रदूषण को दर्शाती है और उनकी जल्दी से जल्दी सफ़ाई करने की हमारी ज़िम्मेदारी की ओर हमारा ध्यान खींचती है। इसी तरह रूसी फ़िल्मकार सोफ़िया गेवेयलर की फ़िल्म 'सूर्यपुत्र' उन अर्धविक्षिप्त लोगों के बारे में है, जिन्हें सचमुच प्यार, सहानुभूति और मदद की ज़रूरत है। यूलिया बिवशेपा की फ़िल्म 'सिनकोपा' एक ऐसे अन्धे बच्चे के बारे में बताती है, जो पियानो बजाता है और एक बड़ा पियानोवादक बनना चाहता है। संगीत के प्रति यह लगाव ही उसे एक अनूठा व्यक्तित्त्व प्रदान करता है। वृतचित्र महोत्सव की ज्यूरी के अध्यक्ष विमल मेहता ने बताया :
ये सभी फ़िल्मकार एकदम युवा हैं। हो सकता है कि कभी इनमें से कोई इतना मशहूर हो जाए कि उसकी फ़िल्में बड़े परदे पर भी दिखाई जाएँ और किसी की फ़िल्म इसके बाद कभी दिखाई ही नहीं जाए, सिर्फ़ इण्टरनेट पर ही ये फ़िल्में देखी जाएँ। लेकिन फिर भी ये फ़िल्में ऐसी हैं कि इनकी तरफ़ विशेष रूप से ध्यान देना ज़रूरी है। इन सभी में हमारी समस्याओं पर सोचने और उन्हें अभिव्यक्त करने की क्षमता है। ये लोग हमारे दर्द को महसूस कर सकते हैं और परिस्थिति को बदलने की कोशिश कर सकते हैं।
'यूथ स्पीरिट' नामक इस वृतचित्र महोत्सव के विजेताओं को विशेष प्रमाणपत्र और पुरस्कार दिए जाएँगे। इनमें से दो भारतीय फ़िल्मकारो को आगामी सितम्बर-अक्तूबर में भारतीय युवा संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों के प्रतिनिधिमण्डल के साथ रूस की यात्रा भी कराई जाएगी। रूस की विदेश सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद ने इस यात्रा का प्रबन्ध किया है। इस यात्रा के दौरान भी ये लोग अपनी नई फ़िल्म बना सकते हैं और रूस के बारे में तस्वीरें खींच सकते हैं। कुछ लोग रूस के बारे में लेख लिखेंगे और उसके बाद ये सभी 'आँखों देखा रूस' नामक प्रदर्शनियों में भाग लेंगे। भारत स्थित रूस के सांस्कृतिक केन्द्रों में इन प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाएगा।
भाग लेने के लिए 80 वृत्तचित्र आए थे
फोटो रेडियो रूस |
'यूथ स्पीरिट' नामक इस महोत्सव में रूसी और भारतीय युवा फ़िल्मकारों द्वारा बनाए गए दस वृतचित्र दिखाए जाएँगे। रूसी सांस्कृतिक केन्द्र की प्रमुख अधिकारी येलेना श्तापकिना ने बताया कि इस तरह के फ़िल्म महोत्सव का आयोजन पहली बार किया जा रहा है। रूसी सांस्कृतिक केन्द्र ने इसका आयोजन रूसी-भारतीय यूथ क्लब फ़ेडरेशन, दिल्ली की 'सिन्थसिज फ़िल्म फ़ोरम' नामक एक फ़िल्म सोसायटी, जगन प्रबन्ध संस्थान की जनसंचार फ़ैकल्टी और मंत्र विश्वविद्यालय के साथ मिलकर किया है। येलेना श्तापकिना ने
बताया :
इस वृतचित्र महोत्सव में भाग लेने के लिए 80 वृत्तचित्र आए थे। लेकिन महोत्सव की ज्यूरी ने सिर्फ़ दस वृत्तचित्रों को ही इस महोत्सव में दिखाने के लिए चुना। इनमें पाँच युवा फ़िल्मकार भारत के नई दिल्ली, नोयडा, अलीगढ़, मुम्बई और चेन्नई जैसे शहरों का प्रतिनिधित्त्व कर रहे हैं। रूसी फ़िल्मकारों में मास्को फ़िल्म इंस्टीट्यूट की पाँच महिला फ़िल्मकारों को शामिल किया गया है। इस वृतचित्र महोत्सव के लिए जो फ़िल्में चुनी गई हैं, वे उन तीख़ी समस्याओं के बारे में हैं, जिनपर अक्सर चर्चा की जाती है। ये फ़िल्में सामाजिक असमानता, पर्यावरण-दूषण, भ्रष्टाचार, रंगभेद या जातिभेद, बाल-अधिकारों की उपेक्षा तथा विकलांगों के बारे में हैं।
दिल्ली की 'सिन्थसिज फ़िल्म फ़ोरम' नामक एक फ़िल्म सोसायटी के संचालक और 'यूथ स्पीरिट' नामक इस वृतचित्र महोत्सव की ज्यूरी के अध्यक्ष विमल मेहता ने बताया कि दोनों देशों के युवा फ़िल्मकारों को लगभग एक जैसी समस्याएँ बेचैन करती हैं और इन समस्याओं के प्रति उनका नज़रिया भी क़रीब-क़रीब एक जैसा है। जैसे मैं अरविन्द राज शर्मा की फ़िल्म 'आई एम गिल्टी' यानी 'मैं दोषी हूँ' -- जो आवारा बच्चों के बारे में है और नियति सेंगरा व अमरेश कुमार सिंह की फ़िल्म 'प्रीस्टीन वाटर्स' यानी 'पवित्र जल' का ज़िक्र करना चाहूँगा, जो भारत की नदियों के प्रदूषण को दर्शाती है और उनकी जल्दी से जल्दी सफ़ाई करने की हमारी ज़िम्मेदारी की ओर हमारा ध्यान खींचती है। इसी तरह रूसी फ़िल्मकार सोफ़िया गेवेयलर की फ़िल्म 'सूर्यपुत्र' उन अर्धविक्षिप्त लोगों के बारे में है, जिन्हें सचमुच प्यार, सहानुभूति और मदद की ज़रूरत है। यूलिया बिवशेपा की फ़िल्म 'सिनकोपा' एक ऐसे अन्धे बच्चे के बारे में बताती है, जो पियानो बजाता है और एक बड़ा पियानोवादक बनना चाहता है। संगीत के प्रति यह लगाव ही उसे एक अनूठा व्यक्तित्त्व प्रदान करता है। वृतचित्र महोत्सव की ज्यूरी के अध्यक्ष विमल मेहता ने बताया :
ये सभी फ़िल्मकार एकदम युवा हैं। हो सकता है कि कभी इनमें से कोई इतना मशहूर हो जाए कि उसकी फ़िल्में बड़े परदे पर भी दिखाई जाएँ और किसी की फ़िल्म इसके बाद कभी दिखाई ही नहीं जाए, सिर्फ़ इण्टरनेट पर ही ये फ़िल्में देखी जाएँ। लेकिन फिर भी ये फ़िल्में ऐसी हैं कि इनकी तरफ़ विशेष रूप से ध्यान देना ज़रूरी है। इन सभी में हमारी समस्याओं पर सोचने और उन्हें अभिव्यक्त करने की क्षमता है। ये लोग हमारे दर्द को महसूस कर सकते हैं और परिस्थिति को बदलने की कोशिश कर सकते हैं।
'यूथ स्पीरिट' नामक इस वृतचित्र महोत्सव के विजेताओं को विशेष प्रमाणपत्र और पुरस्कार दिए जाएँगे। इनमें से दो भारतीय फ़िल्मकारो को आगामी सितम्बर-अक्तूबर में भारतीय युवा संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों के प्रतिनिधिमण्डल के साथ रूस की यात्रा भी कराई जाएगी। रूस की विदेश सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद ने इस यात्रा का प्रबन्ध किया है। इस यात्रा के दौरान भी ये लोग अपनी नई फ़िल्म बना सकते हैं और रूस के बारे में तस्वीरें खींच सकते हैं। कुछ लोग रूस के बारे में लेख लिखेंगे और उसके बाद ये सभी 'आँखों देखा रूस' नामक प्रदर्शनियों में भाग लेंगे। भारत स्थित रूस के सांस्कृतिक केन्द्रों में इन प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाएगा।
भाग लेने के लिए 80 वृत्तचित्र आए थे
Wednesday, June 12, 2013
पूरे जोशो खरोश के साथ रखा गया नवम्बर-84 के शहीदों का नींव पत्थर
संगत का जोश देख कर पुलिस और अधिकारी मूक दर्शक बन कर लौटे
नई दिल्ली:नवम्बर 1984 का अमानवीय नुशंस हत्याकांड जिस पर इन तीन दशकों में भी इस देश की संसद या सरकार को कोई शर्म नहीं आई। घरों से निकाल निकाल कर मारे गए सिख समुदाय के लोगों को आज तक इन्साफ नहीं मिला। न्याय और लोकतंत्र की लगातार खिल्ली उड़ाती इस देश की सरकार ने उस समय तो बेशर्मी की हद कर दी जब नवम्बर-84 में मारे गए लोगों की स्मृति में यादगार बनाने के रास्ते में भी रुकावटें खड़ी कर दीं। शहीदी स्मारक के निर्माण स्थल पर पाबंदी के नोटिस लगा कर सरकार ने सिख जगत के मन में बेगानगी की भावना को और घर कर दिया है। जिन लोगों पर हत्याओं के आरोप लगे थे उन्हें मंत्री बना कर सरकार सिख जगत से अपनी दूरी पहले ही बढ़ा चुकी है।
इस सबके बावजूद नई दिल्ली नगर पालिका परिषद [एनडीएमसी] व पुलिस के विरोध के चलते 1984 सिख मेमोरियल का शिलान्यास तनावपूर्ण माहौल में गुरुद्वारा रकाबगंज में पूर्व नियोजित कार्यक्रम के मुताबिक संपन्न हुआ। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा प्रस्तावित इस शिलान्यास कार्यक्रम को शिरोमणि अकाली दल बादल के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पंजाब के उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल की मौजूदगी में पांचों सिख तख्तों के सिंह साहिबान ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार संपन्न कराया।संगत में जोश था और संगत बहुत बड़ी संख्या में वहां मौजूद थी.
खतरनाक टकराव की आशंका के चलते इस कार्यक्रम के मौके पर भारी पुलिस बल तैनात था। वहीं कार्यक्रम स्थल के आसपास एनडीएमसी के अधिकारी भी पहुंचे हुए थे। मगर तनावपूर्ण माहौल को देखते हुए वे सब वापस लौट गए। शिलान्यास कार्यक्रम को रोकने जैसी कोई बात सामने नहीं आई। अकाली दल की सहयोगी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की तरफ से मेमोरियल के शिलान्यास पत्थर पर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह, लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज व भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल ने पुष्प अर्पित कर 1984 के दंगों में मारे गए सिखों को श्रद्धांजलि दी।
पूर्व घोषित कार्यक्रम के मुताबिक इस प्रस्तावित मेमोरियल की आधारशिला रखने के बाद सुखबीर सिंह बादल ने प्रेसवार्ता को भी संबोधित किया। उन्होंने मीडिया से कहा कि यह स्मारक 84 के दंगों में सिखों पर हुए कत्लेआम में मारे गए लोगों की याद में बनाया जा रहा है। उन्होंने तीखे शब्दों में कहा कि दुनिया के इतिहास में ऐसी मिसाल नहीं मिलेगी जिसमें कोई अपराधी अपराध करने के बाद भी खुलेआम घूम रहे हों। इतना ही नहीं कांग्रेस सरकार इन दंगों में लिप्त लोगों में शामिल सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर आदि को बचाने में लगी है। 29 साल बाद भी इन दंगों के दोषी इन अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई है। अन्य व्क्तायों ने भी इन शर्मनाक बैटन का उल्लेख किया।
इसी बीच दिल्ली सिख गुरुद्वारा ने कहा कि दंगों में मारे गए लोगों की याद में बनाया जा रहा मेमोरियल आने वाली पीढ़ी को हमेशा 1984 के सिख नरसंहार की याद दिलाता रहेगा। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पूर्व चेयरमैन परमजीत सिंह द्वारा मेमोरियल बनाए जाने का विरोध करने के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में बादल ने कहा कि कौम ने ऐसे लोगों को गद्दार करार दिया है। ये लोग कौम के गद्दार हैं। पूछे गए एक सवाल कि क्या आने वाले दिनों में चुनावों में शिरोमणि अकाली दल बादल भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी, इस पर उन्होंने कहा कि शिरोमणि अकाली दल बादल हमेशा से भाजपा का हिस्सा रही है और रहेगी। यह भाजपा का सबसे पुराना सहयोगी दल है और भविष्य में भी रहेगा।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पूर्व चेयरमैन परमजीत सिंह इस मेमोरियल के विरोध में दिल्ली हाई कोर्ट गए हैं। इस मौके पर शिरोमणि कमेटी के अध्यक्ष अवतार सिंह, सांसद सुखदेव सिंह ढींढसा, हरसिमरत कौर, नरेश गुजराल, दिल्ली सिख गुरुद्वारा कमेटी के अध्यक्ष मनजीत सिंह जीके, कमेटी के महासचिव मनजिंदर सिंह सिरसा, अकाली दल बादल के वरिष्ठ नेता अवतार सिंह हित, कुलदीप सिंह भोगल, हरमीत सिंह कालका, तनवंत सिंह व रवींद्र सिंह खुराना आदि भी मौजूद थे।
जिन लोगों ने नीव का पत्थर रखकर शिलान्यास कराया। उन लोगों में श्री अकाल तख्त साहेब के ज्ञानी गुरवचन सिंह जत्थेदार, श्री नंदगढ़ जत्थेदार तख्त श्री दमदमा साहिब के प्रमुख धार्मिक विद्वान ज्ञानी बलवंत सिंह, मुख्य ग्रंथी ज्ञानी मल सिंह, बाबा बचन सिंह कार सेवा वाले, बाबा लक्खा सिंह नानकसर वाले, गुरुद्वारा ठिकाना साहिब के महंत अमृत सिंह के नाम शामिल हैं। अकाली नेता सुखबीर सिंह बादल ने इस नींव पत्थर के जरिये सिख जगत पर अपनी पकड़ और मजबूत बना ली है। अब देखना है दिल्ली डरकर इस सम्बन्ध में क्या कदम उठाती है?
खतरनाक टकराव की आशंका के चलते इस कार्यक्रम के मौके पर भारी पुलिस बल तैनात था। वहीं कार्यक्रम स्थल के आसपास एनडीएमसी के अधिकारी भी पहुंचे हुए थे। मगर तनावपूर्ण माहौल को देखते हुए वे सब वापस लौट गए। शिलान्यास कार्यक्रम को रोकने जैसी कोई बात सामने नहीं आई। अकाली दल की सहयोगी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की तरफ से मेमोरियल के शिलान्यास पत्थर पर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह, लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज व भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल ने पुष्प अर्पित कर 1984 के दंगों में मारे गए सिखों को श्रद्धांजलि दी।
पूर्व घोषित कार्यक्रम के मुताबिक इस प्रस्तावित मेमोरियल की आधारशिला रखने के बाद सुखबीर सिंह बादल ने प्रेसवार्ता को भी संबोधित किया। उन्होंने मीडिया से कहा कि यह स्मारक 84 के दंगों में सिखों पर हुए कत्लेआम में मारे गए लोगों की याद में बनाया जा रहा है। उन्होंने तीखे शब्दों में कहा कि दुनिया के इतिहास में ऐसी मिसाल नहीं मिलेगी जिसमें कोई अपराधी अपराध करने के बाद भी खुलेआम घूम रहे हों। इतना ही नहीं कांग्रेस सरकार इन दंगों में लिप्त लोगों में शामिल सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर आदि को बचाने में लगी है। 29 साल बाद भी इन दंगों के दोषी इन अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई है। अन्य व्क्तायों ने भी इन शर्मनाक बैटन का उल्लेख किया।
इसी बीच दिल्ली सिख गुरुद्वारा ने कहा कि दंगों में मारे गए लोगों की याद में बनाया जा रहा मेमोरियल आने वाली पीढ़ी को हमेशा 1984 के सिख नरसंहार की याद दिलाता रहेगा। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पूर्व चेयरमैन परमजीत सिंह द्वारा मेमोरियल बनाए जाने का विरोध करने के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में बादल ने कहा कि कौम ने ऐसे लोगों को गद्दार करार दिया है। ये लोग कौम के गद्दार हैं। पूछे गए एक सवाल कि क्या आने वाले दिनों में चुनावों में शिरोमणि अकाली दल बादल भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी, इस पर उन्होंने कहा कि शिरोमणि अकाली दल बादल हमेशा से भाजपा का हिस्सा रही है और रहेगी। यह भाजपा का सबसे पुराना सहयोगी दल है और भविष्य में भी रहेगा।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पूर्व चेयरमैन परमजीत सिंह इस मेमोरियल के विरोध में दिल्ली हाई कोर्ट गए हैं। इस मौके पर शिरोमणि कमेटी के अध्यक्ष अवतार सिंह, सांसद सुखदेव सिंह ढींढसा, हरसिमरत कौर, नरेश गुजराल, दिल्ली सिख गुरुद्वारा कमेटी के अध्यक्ष मनजीत सिंह जीके, कमेटी के महासचिव मनजिंदर सिंह सिरसा, अकाली दल बादल के वरिष्ठ नेता अवतार सिंह हित, कुलदीप सिंह भोगल, हरमीत सिंह कालका, तनवंत सिंह व रवींद्र सिंह खुराना आदि भी मौजूद थे।
जिन लोगों ने नीव का पत्थर रखकर शिलान्यास कराया। उन लोगों में श्री अकाल तख्त साहेब के ज्ञानी गुरवचन सिंह जत्थेदार, श्री नंदगढ़ जत्थेदार तख्त श्री दमदमा साहिब के प्रमुख धार्मिक विद्वान ज्ञानी बलवंत सिंह, मुख्य ग्रंथी ज्ञानी मल सिंह, बाबा बचन सिंह कार सेवा वाले, बाबा लक्खा सिंह नानकसर वाले, गुरुद्वारा ठिकाना साहिब के महंत अमृत सिंह के नाम शामिल हैं। अकाली नेता सुखबीर सिंह बादल ने इस नींव पत्थर के जरिये सिख जगत पर अपनी पकड़ और मजबूत बना ली है। अब देखना है दिल्ली डरकर इस सम्बन्ध में क्या कदम उठाती है?
Saturday, June 08, 2013
नक्सल प्रभावित जिलों में 'रोशनी'
07-जून-2013 19:42 IST
50,000 युवाओं को दी जाएंगी नौकरियां-जयराम
ग्रामीण विकास मंत्री श्री जयराम रमेश ने 24 नक्सल प्रभावित जिलों में ग्रामीण युवाओं के लिए नई कौशल विकास योजना की शुरूआत की है। 'रोशनी' नामक इस योजना के अंतर्गत इस क्षेत्र के 50,000 युवाओं के कौशल को विकसित किया जाएगा। ओडीशा और झारखंड के 6 जिले, छत्तीसगढ़ से पांच, बिहार से दो और आंध्र प्रदेश , उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश ओर महाराष्ट्र से एक-एक जिलों का चयन किया गया है। अगले तीन वर्षों में 100 करोड़ रूपए के खर्चे से इस योजना को पूरा किया जाएगा। श्री जयराम रमेश ने पत्रकारों को बताया कि इस योजना के क्रियान्वयन में केन्द्र सरकार और राज्य सरकार की भागीदारी क्रमश: 75 और 25 प्रतिशत होगी। राष्ट्रीय स्तर की संस्थाएं इस योजना का नियंत्रण करेंगी। मंत्री महोदय ने यह भी कहा कि लाभार्थियों में 50 प्रतिशत महिलाएं होंगी। यही नहीं ऐसे आदिवासी समूहों को प्राथमिकता दी जाएगी जो कि हाशिये पर हैं। उन्होंने यह भी बताया कि 18 से 35 वर्ष की आयु वर्ग के ऐसे लाभार्थियों के चयन को प्राथमिकता दी जाएगी जो विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों से हैं। सार्वजिनक-निजी और विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्रों की आपसी भागीदारी के तहत प्रशिक्षण प्रदान किए जाएंगे। शैक्षणिक संस्थाओं, कार्पोरेट संस्थाओं और ऐसी संस्थाओं की सेवाएं इस योजना के लिए ली जाएंगी जो कि सार्वजनिक सेवाओं के लिए प्रशिक्षण देती हों। श्री जयराम रमेश ने बताया कि ऐसे चार मॉडलों का चयन किया गया है जो कि 3 महीने से एक साल के दौरान युवाओं की आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए उन्हें आरंभिक स्तर की योग्यता देने के लिए उपयुक्त हैं। (PIB)
वि.कासोटिया/रत्नावली/सुजीत-2681
50,000 युवाओं को दी जाएंगी नौकरियां-जयराम
ग्रामीण विकास मंत्री श्री जयराम रमेश ने 24 नक्सल प्रभावित जिलों में ग्रामीण युवाओं के लिए नई कौशल विकास योजना की शुरूआत की है। 'रोशनी' नामक इस योजना के अंतर्गत इस क्षेत्र के 50,000 युवाओं के कौशल को विकसित किया जाएगा। ओडीशा और झारखंड के 6 जिले, छत्तीसगढ़ से पांच, बिहार से दो और आंध्र प्रदेश , उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश ओर महाराष्ट्र से एक-एक जिलों का चयन किया गया है। अगले तीन वर्षों में 100 करोड़ रूपए के खर्चे से इस योजना को पूरा किया जाएगा। श्री जयराम रमेश ने पत्रकारों को बताया कि इस योजना के क्रियान्वयन में केन्द्र सरकार और राज्य सरकार की भागीदारी क्रमश: 75 और 25 प्रतिशत होगी। राष्ट्रीय स्तर की संस्थाएं इस योजना का नियंत्रण करेंगी। मंत्री महोदय ने यह भी कहा कि लाभार्थियों में 50 प्रतिशत महिलाएं होंगी। यही नहीं ऐसे आदिवासी समूहों को प्राथमिकता दी जाएगी जो कि हाशिये पर हैं। उन्होंने यह भी बताया कि 18 से 35 वर्ष की आयु वर्ग के ऐसे लाभार्थियों के चयन को प्राथमिकता दी जाएगी जो विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों से हैं। सार्वजिनक-निजी और विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्रों की आपसी भागीदारी के तहत प्रशिक्षण प्रदान किए जाएंगे। शैक्षणिक संस्थाओं, कार्पोरेट संस्थाओं और ऐसी संस्थाओं की सेवाएं इस योजना के लिए ली जाएंगी जो कि सार्वजनिक सेवाओं के लिए प्रशिक्षण देती हों। श्री जयराम रमेश ने बताया कि ऐसे चार मॉडलों का चयन किया गया है जो कि 3 महीने से एक साल के दौरान युवाओं की आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए उन्हें आरंभिक स्तर की योग्यता देने के लिए उपयुक्त हैं। (PIB)
वि.कासोटिया/रत्नावली/सुजीत-2681
Thursday, June 06, 2013
पुलिस हिंसा और भ्रष्टाचार की बुनियाद अंग्रेजी साक्ष्य कानून
Thu, Jun 6, 2013 at 7:53 AM
गवर्नर जनरल ने बनाया था भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872
ब्रिटिश साम्राज्य के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए गवर्नर जनरल ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 बनाया था| यह स्वस्प्ष्ट है कि राज सिंहासन पर बैठे लोग ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि थे और उनका उद्देश्य कानून बनाकर जनता को न्याय सुनिश्चित करना नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करना और उसकी पकड को मजबूत बनाए रखना था| आज भी हमारे देश में यही न्यायप्रणाली-परिपाटी प्रचलित है| आज भी देश के न्यायिक अधिकारी, अर्द्ध-पुलिस अधिकारी की तरह व्यवहार करते हैं और गिरफ्तारी का औचित्य ठहराने के लिए वे कहते हैं कि जहां अभियुक्त का न्यायिक प्रक्रिया से भागने का भय हो उसे गिरफ्तार करना उचित है किन्तु जो पुलिस उसे पहले गिरफ्तार कर सकती वह उसे बाद में भी तो ढूंढकर गिरफ्तार कर सकती है| इसी प्रकार न्यायाधीशों का यह भी कहना होता है कि जहां अभियुक्त द्वारा गवाहों या साक्ष्यों से छेड़छाड़ की संभावना हो तो उसकी गिरफ्तारी उचित है| दूसरी ओर राज्यों के पुलिस नियम यह कहते हैं कि अपराध का पता लगने पर पुलिस को तुरंत घटना स्थल पर जाना चाहिए और सम्बंधित दस्तावेजों को बरामद कर लेना चाहिए| ऐसी स्थिति में यदि पुलिस अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करे उसका दंड अभियुक्त को नहीं मिलना चाहिए| ठीक उसी प्रकार जहां साक्ष्यों से छेड़छाड़ की संभावना हो वहां कलमबंद बयान करवाए जा सकते हैं| किन्तु देश का तंत्र हार्दिक रूप से यह कभी नहीं चाहता कि दोषी को दंड मिले, अपराधों पर नियंत्रण हो अपितु वे तो स्वयं शोषण करना चाहते हैं| दूसरा, जहां तक साक्षियों या प्रलेखों के साथ छेड़छाड़ का प्रश्न है, अभियुक्त में हितबद्ध परिवारजन, मित्र आदि भी यह कार्य कर सकते हैं और यहाँ तक देखा गया है कि शक्तिशाली अभियुक्त होने परिवादी पर स्वयम पुलिस दबाव डालती है| तो फिर क्या प्रलेखों और साक्षियों के साथ छेड़छाड़ की संभावना के मद्देनजर इन लोगों को भी गिरफ्तार कर लिया जाए?
तत्कालीन गवर्नर जनरल का स्थान आज के राष्ट्रपति के समकक्ष था और ये कानून जनता के चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा बनाए गए नहीं बल्कि जनता पर थोपे गए एक तरफ़ा अनुबंध की प्रकृति के हैं| जिस प्रकार राष्ट्रपति द्वारा जारी कोई भी अध्यादेश संसद की पुष्टि के बिना मात्र 6 माह तक ही वैध है उसी सिद्धांत पर ये कानून मात्र 6 माह की सीमित अवधि के लिए लागू रहने चाहिए थे और देश की संसद को चाहिए था कि इन सबकी बारीबारी से समीक्षा करे कि क्या ये कानून जनतांत्रिक मूल्यों को प्रोत्साहित करते हैं| खेद का विषय है कि आज स्वतंत्र भारत में भी उन्हीं कानूनों को ढोया जा रहा है और उनकी समसामयिक प्रासंगिकता पर देश के संकीर्ण सोचवाले जन प्रतिनिधि और न्यायविद कभी भी प्रश्न तक नहीं उठा रहे हैं| अभी हाल ही यशवंत सिन्हा ने राजस्थान पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में कहा है कि दंड संहिता के आधार पर तो अंग्रेज देश में सौ साल तक शासन कर गए किन्तु विद्वान् श्री सिन्हा यह भूल रहे हैं कि शासन करने और सफल प्रजातंत्र के कार्य में जमीन-आसमान का अंतर होता है| शासन चलाने में जनता का हित-अहित नहीं देखा जाता बल्कि कुर्सी पर अपनी पकड़ मात्र मजबूत करनी होती है| इससे हमारे जन प्रतिनिधियों की दिवालिया और गुलाम मानसिकता का संकेत मिलता है|
सिद्धांतत: संविधान लागू होने के बाद देश के नागरिक ही इस प्रजातंत्र के स्वामी हैं और सभी सरकारी सेवक जनता के नौकर हैं किन्तु इन नौकरों को नागरिक आज भी रेत में रेंगनेवाले कीड़े-मकौड़े जैसे नजर आते हैं| इसी कूटनीति के सहारे ब्रिटेन ने लगभग पूरे विश्व पर शासन किया है और एक समय ऐसा था जब ब्रिटिश साम्राज्य में कभी भी सूर्यास्त नहीं होता था अर्थात उत्तर से दक्षिण व पूर्व से पश्चिम तक उनका साम्राज्य विस्तृत था| उनके साम्राज्य में यदि पूर्व में सूर्यास्त हो रहा होता तो पश्चिम में सूर्योदय होता था| यह बात अलग है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सम्पूर्ण विश्व स्तर पर ही स्वतंत्राता की आवाज उठने लगी तो उन्हें धीरे- धीरे सभी राष्ट्रों को मुक्त करना पड़ा जिसमें 1947 में संयोग से भारत की भी बारी आ गयी| किन्तु भारत की शासन प्रणाली में आज तक कोई परिवर्तन नहीं आया है क्योंकि आज भी 80 प्रतिशत से ज्यादा वही कानून लागू हैं जो ब्रिटिश सरकार ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए बनाए थे| ये कानून जनतंत्र के दर्शन पर आधारित नहीं हैं और न ही हमारे सामाजिक ताने बाने और मर्यादाओं से निकले हैं| कानून समाज के लिए बनाए जाते हैं न कि समाज कानून के लिए होता है|
दूसरा, एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि यदि यही कानून जनतंत्र के लिए उपयुक्त होते तो ब्रिटेन में यही मौलिक कानून – दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, दीवानी प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य कानून आज भी लागू होते| किन्तु ब्रिटेन में समस्याओं को अविलम्ब निराकरण किया जाता है और वहां इस बात की प्रतीक्षा नहीं की जाती कि चलती बस में दुष्कर्म होने के बाद कानून बनाया जाएगा| कानून निर्माण का उद्देश्य समग्र और व्यापक होता है तथा उसमें दूरदर्शिता होनी चाहिए व उनमें विद्यमान धरातल स्तर की सभी परिस्थितियों का समावेश होना चाहिए| कानून मात्र आज की तात्कालिक समस्याओं का ही नहीं बल्कि संभावित भावी और आने वाली पीढ़ियों की चुनौतियों से निपटने को ध्यान में रखते हुए बनाए जाने चाहिए| इनमें सभी पक्षकारों के हितों का ध्यान रखते हुए संतुलन के साथ दुरूपयोग की समस्या से निपटने की भी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए| किसी भी कानून का दुरूपयोग पाए जाने पर बिना मांग किये दुरूपयोग से पीड़ित व्यक्ति को उचित और वास्तविक क्षतिपूर्ति और दुरुपयोगकर्ता को समुचित दंड ही न्याय व्यवस्था में वास्तविक सुधार और संतुलन ला सकता है|
भारत के विधि आयोग ने हिरासती हिंसा विषय पर दी गयी अपनी 152 वीं रिपोर्ट दिनांक 26.08.1994 में यह चिंता व्यक्त की है कि इसकी जड़ साक्ष्य कानून की विसंगतिपूर्ण धारा 27 में निहित है| साक्ष्य कानून में यद्यपि यह प्रावधान है कि हिरासत में किसी व्यक्ति द्वारा की गयी कबुलियत स्वीकार्य नहीं है| यह प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के अनुरूप है किन्तु उक्त धारा में इससे विपरीत प्रावधान है कि यदि हिरासत में कोई व्यक्ति किसी बरामदगी से सम्बंधित कोई बयान देता है तो यह स्वीकार्य होगा | कूटनीतिक शब्दजाल से बनायी गयी इस धारा को चाहे देश के न्यायालय शब्दश: असंवैधानिक न ठहराते हों किन्तु यह मौलिक भावना और संविधान की आत्मा के विपरीत है|
पुलिस अधिकारी अपने अनुभव, ज्ञान, कौशल से इस बात को भलीभांति जानते हैं कि इस प्रावधान के उपयोग से वे अनुचित तरीकों का प्रयोग करके ऐसा बयान प्राप्त कर सकते हैं जो स्वयं अभियुक्त के विरुद्ध प्रभाव रखता हो| यह एक बड़ी अप्रिय स्थिति है कि इस धारा के प्रभाव से शरारत की जा सकती है और इसके बल पर कबुलियत करवाई जा सकती है| यदि हमें ईमानदार कानून की अवधारणा को आगे बढ़ाना हो तो इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन करना पडेगा| भारतीय न्याय प्रणाली का यह सिद्धांत रहा है कि चाहे हजार दोषी छूट जाएँ लेकिन एक भी निर्दोष को को दंड नहीं मिलना चाहिए जबकि यह धारा इस सुस्थापित सिद्धांत के ठीक विपरीत प्रभाव रखती है| भारत यू एन ओ का सदस्य है और उसने उत्पीडन पर अंतर्राष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर कर दिये हैं और यह संधि भारत सरकार पर कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रभाव रखती है तथा साक्ष्य कानून की धारा 27 इस संधि के प्रावधानों के विपरीत होने के कारण भी अविलम्ब निरस्त की जानी चाहिए|
स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने डी के बासु के प्रसिद्ध मामले में कहा है कि मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघन अनुसंधान में उस समय होता है जब पुलिस कबूलियत के लिए या साक्ष्य प्राप्त करने के लिए थर्ड डिग्री तरीकों का इस्तेमाल करती है| हिरासत में उत्पीडन और मृत्यु इस सीमा तक बढ़ गए हैं कि कानून के राज और आपराधिक न्याय प्रशासन की विश्वसनीयता दांव पर लग गयी है| विधि आयोग ने आगे भी अपनी रिपोर्ट संख्या 185 में इस प्रावधान पर प्रतिकूल दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है| यद्यपि पुलिस के इन अत्याचारों को किसी भी कानून में कोई स्थान प्राप्त नहीं है और स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने रामफल कुंडू बनाम कमल शर्मा के मामले में कहा है कि कानून में यह सुनिश्चित है जब किसी कार्य के लिए कोई शक्ति दी जाती है तो वह ठीक उसी प्रकार प्रयोग की जानी चाहिए अन्यथा बिलकुल नहीं और अन्य तरीके आवश्यक रूप से निषिद्ध हैं|
यद्यपि पुलिस को हिरासत में अमानवीय कृत्य का सहारा लेने का कोई अधिकार नहीं है किन्तु उक्त धारा की आड़ में पुलिस वह सब कुछ कर रही है जिसकी करने की उन्हें कानून में कोई अनुमति नहीं है और पुलिस इसे अपना अधिकार मानती है| दूसरी ओर भारत में पशुओं पर निर्दयता के निवारण के लिए 1960 से ही कानून बना हुआ है किन्तु मनुष्य जाति पर निर्दयता के निवारण के लिए हमारी विधायिकाओं को कोई कानून बनाने के लिये आज तक फुरसत नहीं मिली है| यह भी सुस्थापित है कि कोई भी व्यक्ति किसी प्रेरणा या भय के बिना अपने विरुद्ध किसी भी तथ्य का रहस्योद्घाटन नहीं करेगा अत: पुलिस द्वारा अभियुक्त से प्राप्त की गयी सूचना मुश्किल से ही किसी बाहरी प्रभाव के बिना हो सकती है| सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब राज्य बनाम बलबीर सिंह (1994 एआईआर 1872) में कहा है कि यदि अभिरक्षा में एक व्यक्ति से पूछताछ की जाती है तो उसे सर्वप्रथम स्पष्ट एवं असंदिग्ध शब्दों में बताया जाना चाहिए उसे चुप रहने का अधिकार है। जो इस विशेषाधिकार से अनभिज्ञ हो उन्हें यह चेतावनी प्रारम्भिक स्तर पर ही दी जानी चाहिए। ऐसी चेतावनी की अन्तर्निहित आवश्यकता पूछताछ के दबावयुक्त वातावरण पर काबू पाने के लिए है। किन्तु इन निर्देशों की अनुपालना किस प्रकार सुनिश्चित की जा रही है कहने की आवश्यकता नहीं है|
साक्ष्य कानून के उक्त प्रावधान से पुलिस को बनावटी कहानी गढ़ने और फर्जी साक्ष्य बनाने के लिए खुला अवसर उपलब्ध होता है| कुछ वर्ष पहले ऐसा ही एक दुखदायी मामला नछत्र सिंह का सामने आया जिसमें पंजाब पुलिस ने फर्जीतौर पर खून से रंगे हथियार, कपडे और गवाह खड़े करके 5 अभियुक्तों को एक ऐसे व्यक्ति की ह्त्या के जुर्म में सजा करवा दी जो जीवित था और कालान्तर में पंजाब उच्च न्यायालय में उपस्थित था| पुलिस की बाजीगरी की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती अपितु अन्य भी ऐसे बहुत से मामले हैं जहां बिलकुल निर्दोष व्यक्ति को फंसाकर दोषी ठहरा दिया जाता है और तथाकथित रक्त से रंगे कपड़ों आदि की जांच में पाया जाता है कि वह मानव खून ही नहीं था अपितु किसी जानवर का खून था अथवा लोहे के जंग के निशान थे| इसी प्रकार पुलिस (जो सामान उनके पास उचंती तौर पर जब्ती से पडा रहता है) अन्य मामलों में भी अवैध हथियार, चोरी आदि के सामान की फर्जी बरामदगी दिखाकर अपनी करामत दिखाती है, वाही वाही लूटती है और पदोन्नति और प्रतिवर्ष पदक भी पाती है| नछत्र सिंह के उक्त मामले में पाँचों अभियुक्तों को रिहा करते हुए उन्हें एक करोड़ रुपये का मुआवजा दिया गया किन्तु इस धारा के दुरुपयोग को रोकने के लिए न ही तो यह कोई स्वीकार्य उपाय है और स्वतंत्रता के अमूल्य अधिकार को देखते हुए किसी भी मौद्रिक क्षतिपूर्ति से वास्तव में हुई हानि की पूर्ति नहीं हो सकती| इस प्रकरण में एक अभियुक्त ने तो सामाजिक बदनामी के कारण आत्म ह्त्या भी कर ली थी| पुलिस के अनुचित कृत्यों से एक व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण भाग इस प्रकार बर्बाद हो जाता है, व्यक्ति आर्थिक रूप से जेरबार हो जाता है, परिवार छिन्नभिन्न हो जता है, उसका भविष्य अन्धकार में लीन हो जाता है और दोष मुक्त होने के बावजूद भी यह झूठा कलंक उसका जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता है| समाज में उसे अपमान की दृष्टि से देखा जाता है महज इस कारण की कि साक्ष्य कानून के उक्त प्रावधान ने पुलिस के क्रूर हाथों में इसका दुरूपयोग करने का हथियार उपलब्ध करवाया|
वर्तमान कानून में परीक्षण पूर्ण होने पर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अंतर्गत न्यायाधीश अभियुक्त से स्पष्टीकरण माँगता है और अभियुक्त अपना पक्ष रख सकता है किन्तु उसकी यह परीक्षा न तो शपथ पर होती है और न ही उसकी प्रतिपरीक्षा की जा सकती | अत: यह बयान सामान्य बयान की तरह नहीं पढ़ा जाता और न ही बयान की तरह मान्य होता है | एक अभियुक्त भी सक्षम साक्षी होता है और जहां वह बिलकुल निर्दोष हो वहां स्वयं को साक्षी के तौर पर प्रस्तुत कर अपनी निर्दोषिता सिद्ध कर सकता है| चूँकि साक्षी के तौर पर दिए गए उसके बयान पर प्रतिपरीक्षण हो सकता है अत; यह बयान मान्य है| किन्तु भारत में इस प्रावधान का उपयोग करने के उदाहरण ढूढने से भी मिलने मुश्किल हैं |
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अंतर्गत पुलिस को दिए गए बयानों को धारा 162 में न्यायालयों में मान्यता नहीं दी गयी है| देश की विधायिका को भी इस बात का ज्ञान है कि पुलिस थानों में नागरिकों के साथ किस प्रकार अभद्र व्यवहार किया जाता है इस कारण धारा 161 के बयानों के प्रयोजनार्थ महिलाओं और बच्चों के बयान लेने के लिए उन्हें थानों में बुलाने पर 1973 की संहिता में प्रतिबन्ध लगाया गया है जोकि 1898 की अंग्रेजी संहिता में नहीं था| प्रश्न यह है कि जिस पुलिस से महिलाओं और बच्चों के साथ सद्व्यवहार की आशा नहीं है वह अन्य नागरिकों के साथ कैसे सद्व्यवहार कर सकती है या उन्हें पुलिस के दुर्व्यवहार को झेलने के लिए क्यों विवश किया जाए| इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश आनंद नारायण मुल्ला ने पुलिस को देश का सबसे बड़ा अपराधी समूह बताया था और हाल ही तरनतारन (पंजाब) में एक महिला के साथ सरेआम मारपीट के मामले में स्वयं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने टिपण्णी की थी कि पुलिस में सभी नियुक्तियां पैसे के दम पर होती हैं| सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली ज्युडीसियल सर्विस के मामले में भी कहा है कि पुलिस अधिकारियों पर कोई कार्यवाही नहीं करने से यह संकेत मिलता है कि गुजरात राज्य में पुलिस हावी है अत; दोषी पुलिस कर्मियों पर कार्यवाही करने से प्रशासन हिचकिचाता है| कमोबेश यही स्थिति सम्पूर्ण भारत की है और इससे पुलिस की कार्यवाहियों की विश्वसनीयता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है|
महानगरों में फुटपाथों, रेलवे आदि पर मजदूरी करनेवाले, कचरा बीनने वाले गरीब बच्चे इस धारा के दुरूपयोग के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं| अत: इस धारा को अविलम्ब निरस्त करने की आवश्यकता है जबकि पुलिस और अभियोजन यह कुतर्क दे सकते हैं कि एक अभियुक्त को दण्डित करने के लिए यह एक कारगर उपाय है| किन्तु वास्तविक स्थिति भिन्न है| आस्ट्रेलिया के साक्ष्य कानून में इस प्रकार का कोई प्रावधान नहीं है फिर भी वहां दोष सिद्धि की दर- मजिस्ट्रेट मामलों में 6.1 प्रतिशत और जिला न्यायालयों के मामलों में 8.2 प्रतिशत है वहीँ भारतीय विधि आयोग अपनी 197 वीं रिपोर्ट में भारत में मात्र 2 प्रतिशत दोषसिद्धि की दर पर चिंता व्यक्त कर चुका है| इस प्रकार पुलिस और अभियोजन की यह अवधारणा भी पूर्णत: निराधार और बेबुनियाद है| पुलिस को अब साक्ष्य और अनुसन्धान के आधुनिक एवं उन्नत तरीकों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए| न्यायशास्त्र का यह भी सिद्धांत है कि साक्ष्यों को गिना नहीं अपितु उनकी गुणवता देखी जानी चाहिए| ऐसी स्थिति में पुलिस द्वारा इस प्रकार गढ़ी गयी साक्ष्यों का मूल्याङ्कन किया जाना चाहिए| वर्तमान में 1872 का विद्यमान भारतीय साक्ष्य कानून समयातीत हो गया है और यह समसामयिक चुनौतियों का सामना करने में विफल है| --मनी राम शर्मा
गवर्नर जनरल ने बनाया था भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872
ब्रिटिश साम्राज्य के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए गवर्नर जनरल ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 बनाया था| यह स्वस्प्ष्ट है कि राज सिंहासन पर बैठे लोग ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि थे और उनका उद्देश्य कानून बनाकर जनता को न्याय सुनिश्चित करना नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करना और उसकी पकड को मजबूत बनाए रखना था| आज भी हमारे देश में यही न्यायप्रणाली-परिपाटी प्रचलित है| आज भी देश के न्यायिक अधिकारी, अर्द्ध-पुलिस अधिकारी की तरह व्यवहार करते हैं और गिरफ्तारी का औचित्य ठहराने के लिए वे कहते हैं कि जहां अभियुक्त का न्यायिक प्रक्रिया से भागने का भय हो उसे गिरफ्तार करना उचित है किन्तु जो पुलिस उसे पहले गिरफ्तार कर सकती वह उसे बाद में भी तो ढूंढकर गिरफ्तार कर सकती है| इसी प्रकार न्यायाधीशों का यह भी कहना होता है कि जहां अभियुक्त द्वारा गवाहों या साक्ष्यों से छेड़छाड़ की संभावना हो तो उसकी गिरफ्तारी उचित है| दूसरी ओर राज्यों के पुलिस नियम यह कहते हैं कि अपराध का पता लगने पर पुलिस को तुरंत घटना स्थल पर जाना चाहिए और सम्बंधित दस्तावेजों को बरामद कर लेना चाहिए| ऐसी स्थिति में यदि पुलिस अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करे उसका दंड अभियुक्त को नहीं मिलना चाहिए| ठीक उसी प्रकार जहां साक्ष्यों से छेड़छाड़ की संभावना हो वहां कलमबंद बयान करवाए जा सकते हैं| किन्तु देश का तंत्र हार्दिक रूप से यह कभी नहीं चाहता कि दोषी को दंड मिले, अपराधों पर नियंत्रण हो अपितु वे तो स्वयं शोषण करना चाहते हैं| दूसरा, जहां तक साक्षियों या प्रलेखों के साथ छेड़छाड़ का प्रश्न है, अभियुक्त में हितबद्ध परिवारजन, मित्र आदि भी यह कार्य कर सकते हैं और यहाँ तक देखा गया है कि शक्तिशाली अभियुक्त होने परिवादी पर स्वयम पुलिस दबाव डालती है| तो फिर क्या प्रलेखों और साक्षियों के साथ छेड़छाड़ की संभावना के मद्देनजर इन लोगों को भी गिरफ्तार कर लिया जाए?
तत्कालीन गवर्नर जनरल का स्थान आज के राष्ट्रपति के समकक्ष था और ये कानून जनता के चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा बनाए गए नहीं बल्कि जनता पर थोपे गए एक तरफ़ा अनुबंध की प्रकृति के हैं| जिस प्रकार राष्ट्रपति द्वारा जारी कोई भी अध्यादेश संसद की पुष्टि के बिना मात्र 6 माह तक ही वैध है उसी सिद्धांत पर ये कानून मात्र 6 माह की सीमित अवधि के लिए लागू रहने चाहिए थे और देश की संसद को चाहिए था कि इन सबकी बारीबारी से समीक्षा करे कि क्या ये कानून जनतांत्रिक मूल्यों को प्रोत्साहित करते हैं| खेद का विषय है कि आज स्वतंत्र भारत में भी उन्हीं कानूनों को ढोया जा रहा है और उनकी समसामयिक प्रासंगिकता पर देश के संकीर्ण सोचवाले जन प्रतिनिधि और न्यायविद कभी भी प्रश्न तक नहीं उठा रहे हैं| अभी हाल ही यशवंत सिन्हा ने राजस्थान पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में कहा है कि दंड संहिता के आधार पर तो अंग्रेज देश में सौ साल तक शासन कर गए किन्तु विद्वान् श्री सिन्हा यह भूल रहे हैं कि शासन करने और सफल प्रजातंत्र के कार्य में जमीन-आसमान का अंतर होता है| शासन चलाने में जनता का हित-अहित नहीं देखा जाता बल्कि कुर्सी पर अपनी पकड़ मात्र मजबूत करनी होती है| इससे हमारे जन प्रतिनिधियों की दिवालिया और गुलाम मानसिकता का संकेत मिलता है|
सिद्धांतत: संविधान लागू होने के बाद देश के नागरिक ही इस प्रजातंत्र के स्वामी हैं और सभी सरकारी सेवक जनता के नौकर हैं किन्तु इन नौकरों को नागरिक आज भी रेत में रेंगनेवाले कीड़े-मकौड़े जैसे नजर आते हैं| इसी कूटनीति के सहारे ब्रिटेन ने लगभग पूरे विश्व पर शासन किया है और एक समय ऐसा था जब ब्रिटिश साम्राज्य में कभी भी सूर्यास्त नहीं होता था अर्थात उत्तर से दक्षिण व पूर्व से पश्चिम तक उनका साम्राज्य विस्तृत था| उनके साम्राज्य में यदि पूर्व में सूर्यास्त हो रहा होता तो पश्चिम में सूर्योदय होता था| यह बात अलग है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सम्पूर्ण विश्व स्तर पर ही स्वतंत्राता की आवाज उठने लगी तो उन्हें धीरे- धीरे सभी राष्ट्रों को मुक्त करना पड़ा जिसमें 1947 में संयोग से भारत की भी बारी आ गयी| किन्तु भारत की शासन प्रणाली में आज तक कोई परिवर्तन नहीं आया है क्योंकि आज भी 80 प्रतिशत से ज्यादा वही कानून लागू हैं जो ब्रिटिश सरकार ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए बनाए थे| ये कानून जनतंत्र के दर्शन पर आधारित नहीं हैं और न ही हमारे सामाजिक ताने बाने और मर्यादाओं से निकले हैं| कानून समाज के लिए बनाए जाते हैं न कि समाज कानून के लिए होता है|
दूसरा, एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि यदि यही कानून जनतंत्र के लिए उपयुक्त होते तो ब्रिटेन में यही मौलिक कानून – दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, दीवानी प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य कानून आज भी लागू होते| किन्तु ब्रिटेन में समस्याओं को अविलम्ब निराकरण किया जाता है और वहां इस बात की प्रतीक्षा नहीं की जाती कि चलती बस में दुष्कर्म होने के बाद कानून बनाया जाएगा| कानून निर्माण का उद्देश्य समग्र और व्यापक होता है तथा उसमें दूरदर्शिता होनी चाहिए व उनमें विद्यमान धरातल स्तर की सभी परिस्थितियों का समावेश होना चाहिए| कानून मात्र आज की तात्कालिक समस्याओं का ही नहीं बल्कि संभावित भावी और आने वाली पीढ़ियों की चुनौतियों से निपटने को ध्यान में रखते हुए बनाए जाने चाहिए| इनमें सभी पक्षकारों के हितों का ध्यान रखते हुए संतुलन के साथ दुरूपयोग की समस्या से निपटने की भी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए| किसी भी कानून का दुरूपयोग पाए जाने पर बिना मांग किये दुरूपयोग से पीड़ित व्यक्ति को उचित और वास्तविक क्षतिपूर्ति और दुरुपयोगकर्ता को समुचित दंड ही न्याय व्यवस्था में वास्तविक सुधार और संतुलन ला सकता है|
भारत के विधि आयोग ने हिरासती हिंसा विषय पर दी गयी अपनी 152 वीं रिपोर्ट दिनांक 26.08.1994 में यह चिंता व्यक्त की है कि इसकी जड़ साक्ष्य कानून की विसंगतिपूर्ण धारा 27 में निहित है| साक्ष्य कानून में यद्यपि यह प्रावधान है कि हिरासत में किसी व्यक्ति द्वारा की गयी कबुलियत स्वीकार्य नहीं है| यह प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के अनुरूप है किन्तु उक्त धारा में इससे विपरीत प्रावधान है कि यदि हिरासत में कोई व्यक्ति किसी बरामदगी से सम्बंधित कोई बयान देता है तो यह स्वीकार्य होगा | कूटनीतिक शब्दजाल से बनायी गयी इस धारा को चाहे देश के न्यायालय शब्दश: असंवैधानिक न ठहराते हों किन्तु यह मौलिक भावना और संविधान की आत्मा के विपरीत है|
पुलिस अधिकारी अपने अनुभव, ज्ञान, कौशल से इस बात को भलीभांति जानते हैं कि इस प्रावधान के उपयोग से वे अनुचित तरीकों का प्रयोग करके ऐसा बयान प्राप्त कर सकते हैं जो स्वयं अभियुक्त के विरुद्ध प्रभाव रखता हो| यह एक बड़ी अप्रिय स्थिति है कि इस धारा के प्रभाव से शरारत की जा सकती है और इसके बल पर कबुलियत करवाई जा सकती है| यदि हमें ईमानदार कानून की अवधारणा को आगे बढ़ाना हो तो इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन करना पडेगा| भारतीय न्याय प्रणाली का यह सिद्धांत रहा है कि चाहे हजार दोषी छूट जाएँ लेकिन एक भी निर्दोष को को दंड नहीं मिलना चाहिए जबकि यह धारा इस सुस्थापित सिद्धांत के ठीक विपरीत प्रभाव रखती है| भारत यू एन ओ का सदस्य है और उसने उत्पीडन पर अंतर्राष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर कर दिये हैं और यह संधि भारत सरकार पर कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रभाव रखती है तथा साक्ष्य कानून की धारा 27 इस संधि के प्रावधानों के विपरीत होने के कारण भी अविलम्ब निरस्त की जानी चाहिए|
स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने डी के बासु के प्रसिद्ध मामले में कहा है कि मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघन अनुसंधान में उस समय होता है जब पुलिस कबूलियत के लिए या साक्ष्य प्राप्त करने के लिए थर्ड डिग्री तरीकों का इस्तेमाल करती है| हिरासत में उत्पीडन और मृत्यु इस सीमा तक बढ़ गए हैं कि कानून के राज और आपराधिक न्याय प्रशासन की विश्वसनीयता दांव पर लग गयी है| विधि आयोग ने आगे भी अपनी रिपोर्ट संख्या 185 में इस प्रावधान पर प्रतिकूल दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है| यद्यपि पुलिस के इन अत्याचारों को किसी भी कानून में कोई स्थान प्राप्त नहीं है और स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने रामफल कुंडू बनाम कमल शर्मा के मामले में कहा है कि कानून में यह सुनिश्चित है जब किसी कार्य के लिए कोई शक्ति दी जाती है तो वह ठीक उसी प्रकार प्रयोग की जानी चाहिए अन्यथा बिलकुल नहीं और अन्य तरीके आवश्यक रूप से निषिद्ध हैं|
यद्यपि पुलिस को हिरासत में अमानवीय कृत्य का सहारा लेने का कोई अधिकार नहीं है किन्तु उक्त धारा की आड़ में पुलिस वह सब कुछ कर रही है जिसकी करने की उन्हें कानून में कोई अनुमति नहीं है और पुलिस इसे अपना अधिकार मानती है| दूसरी ओर भारत में पशुओं पर निर्दयता के निवारण के लिए 1960 से ही कानून बना हुआ है किन्तु मनुष्य जाति पर निर्दयता के निवारण के लिए हमारी विधायिकाओं को कोई कानून बनाने के लिये आज तक फुरसत नहीं मिली है| यह भी सुस्थापित है कि कोई भी व्यक्ति किसी प्रेरणा या भय के बिना अपने विरुद्ध किसी भी तथ्य का रहस्योद्घाटन नहीं करेगा अत: पुलिस द्वारा अभियुक्त से प्राप्त की गयी सूचना मुश्किल से ही किसी बाहरी प्रभाव के बिना हो सकती है| सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब राज्य बनाम बलबीर सिंह (1994 एआईआर 1872) में कहा है कि यदि अभिरक्षा में एक व्यक्ति से पूछताछ की जाती है तो उसे सर्वप्रथम स्पष्ट एवं असंदिग्ध शब्दों में बताया जाना चाहिए उसे चुप रहने का अधिकार है। जो इस विशेषाधिकार से अनभिज्ञ हो उन्हें यह चेतावनी प्रारम्भिक स्तर पर ही दी जानी चाहिए। ऐसी चेतावनी की अन्तर्निहित आवश्यकता पूछताछ के दबावयुक्त वातावरण पर काबू पाने के लिए है। किन्तु इन निर्देशों की अनुपालना किस प्रकार सुनिश्चित की जा रही है कहने की आवश्यकता नहीं है|
साक्ष्य कानून के उक्त प्रावधान से पुलिस को बनावटी कहानी गढ़ने और फर्जी साक्ष्य बनाने के लिए खुला अवसर उपलब्ध होता है| कुछ वर्ष पहले ऐसा ही एक दुखदायी मामला नछत्र सिंह का सामने आया जिसमें पंजाब पुलिस ने फर्जीतौर पर खून से रंगे हथियार, कपडे और गवाह खड़े करके 5 अभियुक्तों को एक ऐसे व्यक्ति की ह्त्या के जुर्म में सजा करवा दी जो जीवित था और कालान्तर में पंजाब उच्च न्यायालय में उपस्थित था| पुलिस की बाजीगरी की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती अपितु अन्य भी ऐसे बहुत से मामले हैं जहां बिलकुल निर्दोष व्यक्ति को फंसाकर दोषी ठहरा दिया जाता है और तथाकथित रक्त से रंगे कपड़ों आदि की जांच में पाया जाता है कि वह मानव खून ही नहीं था अपितु किसी जानवर का खून था अथवा लोहे के जंग के निशान थे| इसी प्रकार पुलिस (जो सामान उनके पास उचंती तौर पर जब्ती से पडा रहता है) अन्य मामलों में भी अवैध हथियार, चोरी आदि के सामान की फर्जी बरामदगी दिखाकर अपनी करामत दिखाती है, वाही वाही लूटती है और पदोन्नति और प्रतिवर्ष पदक भी पाती है| नछत्र सिंह के उक्त मामले में पाँचों अभियुक्तों को रिहा करते हुए उन्हें एक करोड़ रुपये का मुआवजा दिया गया किन्तु इस धारा के दुरुपयोग को रोकने के लिए न ही तो यह कोई स्वीकार्य उपाय है और स्वतंत्रता के अमूल्य अधिकार को देखते हुए किसी भी मौद्रिक क्षतिपूर्ति से वास्तव में हुई हानि की पूर्ति नहीं हो सकती| इस प्रकरण में एक अभियुक्त ने तो सामाजिक बदनामी के कारण आत्म ह्त्या भी कर ली थी| पुलिस के अनुचित कृत्यों से एक व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण भाग इस प्रकार बर्बाद हो जाता है, व्यक्ति आर्थिक रूप से जेरबार हो जाता है, परिवार छिन्नभिन्न हो जता है, उसका भविष्य अन्धकार में लीन हो जाता है और दोष मुक्त होने के बावजूद भी यह झूठा कलंक उसका जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता है| समाज में उसे अपमान की दृष्टि से देखा जाता है महज इस कारण की कि साक्ष्य कानून के उक्त प्रावधान ने पुलिस के क्रूर हाथों में इसका दुरूपयोग करने का हथियार उपलब्ध करवाया|
वर्तमान कानून में परीक्षण पूर्ण होने पर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अंतर्गत न्यायाधीश अभियुक्त से स्पष्टीकरण माँगता है और अभियुक्त अपना पक्ष रख सकता है किन्तु उसकी यह परीक्षा न तो शपथ पर होती है और न ही उसकी प्रतिपरीक्षा की जा सकती | अत: यह बयान सामान्य बयान की तरह नहीं पढ़ा जाता और न ही बयान की तरह मान्य होता है | एक अभियुक्त भी सक्षम साक्षी होता है और जहां वह बिलकुल निर्दोष हो वहां स्वयं को साक्षी के तौर पर प्रस्तुत कर अपनी निर्दोषिता सिद्ध कर सकता है| चूँकि साक्षी के तौर पर दिए गए उसके बयान पर प्रतिपरीक्षण हो सकता है अत; यह बयान मान्य है| किन्तु भारत में इस प्रावधान का उपयोग करने के उदाहरण ढूढने से भी मिलने मुश्किल हैं |
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अंतर्गत पुलिस को दिए गए बयानों को धारा 162 में न्यायालयों में मान्यता नहीं दी गयी है| देश की विधायिका को भी इस बात का ज्ञान है कि पुलिस थानों में नागरिकों के साथ किस प्रकार अभद्र व्यवहार किया जाता है इस कारण धारा 161 के बयानों के प्रयोजनार्थ महिलाओं और बच्चों के बयान लेने के लिए उन्हें थानों में बुलाने पर 1973 की संहिता में प्रतिबन्ध लगाया गया है जोकि 1898 की अंग्रेजी संहिता में नहीं था| प्रश्न यह है कि जिस पुलिस से महिलाओं और बच्चों के साथ सद्व्यवहार की आशा नहीं है वह अन्य नागरिकों के साथ कैसे सद्व्यवहार कर सकती है या उन्हें पुलिस के दुर्व्यवहार को झेलने के लिए क्यों विवश किया जाए| इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश आनंद नारायण मुल्ला ने पुलिस को देश का सबसे बड़ा अपराधी समूह बताया था और हाल ही तरनतारन (पंजाब) में एक महिला के साथ सरेआम मारपीट के मामले में स्वयं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने टिपण्णी की थी कि पुलिस में सभी नियुक्तियां पैसे के दम पर होती हैं| सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली ज्युडीसियल सर्विस के मामले में भी कहा है कि पुलिस अधिकारियों पर कोई कार्यवाही नहीं करने से यह संकेत मिलता है कि गुजरात राज्य में पुलिस हावी है अत; दोषी पुलिस कर्मियों पर कार्यवाही करने से प्रशासन हिचकिचाता है| कमोबेश यही स्थिति सम्पूर्ण भारत की है और इससे पुलिस की कार्यवाहियों की विश्वसनीयता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है|
महानगरों में फुटपाथों, रेलवे आदि पर मजदूरी करनेवाले, कचरा बीनने वाले गरीब बच्चे इस धारा के दुरूपयोग के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं| अत: इस धारा को अविलम्ब निरस्त करने की आवश्यकता है जबकि पुलिस और अभियोजन यह कुतर्क दे सकते हैं कि एक अभियुक्त को दण्डित करने के लिए यह एक कारगर उपाय है| किन्तु वास्तविक स्थिति भिन्न है| आस्ट्रेलिया के साक्ष्य कानून में इस प्रकार का कोई प्रावधान नहीं है फिर भी वहां दोष सिद्धि की दर- मजिस्ट्रेट मामलों में 6.1 प्रतिशत और जिला न्यायालयों के मामलों में 8.2 प्रतिशत है वहीँ भारतीय विधि आयोग अपनी 197 वीं रिपोर्ट में भारत में मात्र 2 प्रतिशत दोषसिद्धि की दर पर चिंता व्यक्त कर चुका है| इस प्रकार पुलिस और अभियोजन की यह अवधारणा भी पूर्णत: निराधार और बेबुनियाद है| पुलिस को अब साक्ष्य और अनुसन्धान के आधुनिक एवं उन्नत तरीकों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए| न्यायशास्त्र का यह भी सिद्धांत है कि साक्ष्यों को गिना नहीं अपितु उनकी गुणवता देखी जानी चाहिए| ऐसी स्थिति में पुलिस द्वारा इस प्रकार गढ़ी गयी साक्ष्यों का मूल्याङ्कन किया जाना चाहिए| वर्तमान में 1872 का विद्यमान भारतीय साक्ष्य कानून समयातीत हो गया है और यह समसामयिक चुनौतियों का सामना करने में विफल है| --मनी राम शर्मा
Monday, June 03, 2013
अब नहीं तौला जा सकेगा मिठाई के साथ डिब्बा
अलग से देनी होगी डिब्बे की कीमत
लुधियाना : मामला शादी का हो या किसी और ख़ुशी का मिठाई लगातार ज़िन्दगी का एक अभिन्न अंग बनी हुई है. इसी जरूरत का फायदा उठाकर अक्सर मिठाई के साथ डिब्बा भी तोल दिया जाता है। पर अब ऐसा नहीं हो सकेगा। इस सिलसिले को कराया है लुधियाना के एक युवा पत्रकार संत कुमार गोगना ने।
नापतोल विभाग को उपभोक्ता संत कुमार गोगना हलवाइयों के खिलाफ शिकायत दी थी कि हलवाई मिठाई तोलते समय डिब्बे को भी मिठाई की कीमत के बराबर तोलकर उपभोक्ता को चुना लगाते हैं . और अपनी जेबों को गर्म करते हैं . जिस पर कार्यवाई करते हुए नापतोल विभाग ने हलवाइयों के से मीटिंग कर हिदायत दी की वह मिठाई के साथ डिब्बा नहीं तोलेंगे डिब्बे मे मिठाई मांगने वालों को डिब्बे की अलग से कीमत लेकर मिठाई बेचीं जाएगी, यदि कोई हलवाई इन नियमों की पलना नहीं करता तो विरुद्ध मिलने पर विभाग द्वारा कार्यवाई की जाएगी. लुधियाना हलवाई एसोसिएशन ने उन्हें विशवाश दिलाया की भविष्य मे मिठाई के साथ डिब्बे को नहीं तौला जायेगा यदि कोई अपनी मन मानी करता है तो खामियाजा उसे स्वयम भुगतना होगा. जिकरयोग है कि हलवाई महंगी कीमत की मिठाई के भाव में ही गत्ते के डिब्बे को तोल कर उपभोगता को चुना लगते थे. जिस कारण उपभोगता को मिठाई तो कम मिलती ही थी साथ ही डिब्बे की कीमत भी अधिक चुकानी पड़ती थी. अब मिठाई विक्रेता एसा नहीं कर सकेंगे.और उपभोक्तायों को उनकी पूरी कीमत का सामान प्राप्त होगा.
नापतोल विभाग को उपभोक्ता संत कुमार गोगना हलवाइयों के खिलाफ शिकायत दी थी कि हलवाई मिठाई तोलते समय डिब्बे को भी मिठाई की कीमत के बराबर तोलकर उपभोक्ता को चुना लगाते हैं . और अपनी जेबों को गर्म करते हैं . जिस पर कार्यवाई करते हुए नापतोल विभाग ने हलवाइयों के से मीटिंग कर हिदायत दी की वह मिठाई के साथ डिब्बा नहीं तोलेंगे डिब्बे मे मिठाई मांगने वालों को डिब्बे की अलग से कीमत लेकर मिठाई बेचीं जाएगी, यदि कोई हलवाई इन नियमों की पलना नहीं करता तो विरुद्ध मिलने पर विभाग द्वारा कार्यवाई की जाएगी. लुधियाना हलवाई एसोसिएशन ने उन्हें विशवाश दिलाया की भविष्य मे मिठाई के साथ डिब्बे को नहीं तौला जायेगा यदि कोई अपनी मन मानी करता है तो खामियाजा उसे स्वयम भुगतना होगा. जिकरयोग है कि हलवाई महंगी कीमत की मिठाई के भाव में ही गत्ते के डिब्बे को तोल कर उपभोगता को चुना लगते थे. जिस कारण उपभोगता को मिठाई तो कम मिलती ही थी साथ ही डिब्बे की कीमत भी अधिक चुकानी पड़ती थी. अब मिठाई विक्रेता एसा नहीं कर सकेंगे.और उपभोक्तायों को उनकी पूरी कीमत का सामान प्राप्त होगा.
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