Wednesday, July 25, 2012

क्रांति आकर रहेगी

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर;
हर हथेली खून से तर और जियादा बेकरार ! 
दुशियंत जी की उपरोक्त पंक्तियाँ अचानक याद आइन, माहौल देख कर बिना जहन पर कोई दबाव डाले होठों से निकल पड़ीं। इसके साथ ही .यह अहसास भी एक बार फिर जगा कि क्रांति  तो अब हर हाल में आकर ही रहेगी. .आयोजन पटियाला में था और लोग अन्ना टीम को सुनने दूर दूर से आये थे वहां अन्ना टीम से जुड़े अरविन्द केजरीवाल,  गोपाल राये  जी , संजय सिंह और कई अन्य लोग भी थे। लोगों की भीड़ कोई ज्यादा नहीं थी पर जो थे वे पूरी तरह समर्पण भाव से आये थे। वहाँ भाड़े पर लाये लोगों का शोरुगुल नहीं था। सभी लोग बहुत ही अनुशासन में थे और वह भी अपने आप. कोई किसी को डांट या घूर नहीं रहा था। कुछ लोग मंच पर रहना चाहते थे; केवल इसलिए कि अन्ना टीम के कुछ अधिक नजदीक  बैठ सकें मंच से आदेश हुआ तो सभी लोग बिना  किसी हील हुज्जत के नीचे उतर गए। 
वहां ऐसे लोगों की भीड़ भी थी जो अपने साथ हुए भ्रष्टाचार का विवरण पूरे सबूतों सहित लेकर वहां पहुंचे थे। इन सभी लोगों को यही लग रहा था अगर आना टीम उनका मामला देख ले तो समस्या हल हो जाएगी। पर सबूतों के बावजूद सभी को एक ही जवाब मिल रहा था की जांच के बाद सही पाए जाने पर ही अन्ना टीम किसी मुद्दे को उठाएगी वरना बिलकुल नहीं। मैं शिकायत कर्तायों की भीड़ और उनका विशवास देख कर हैरान था। आम तौर पर कोई आम कमज़ोर इन्सान सुनवाई न होने पर अपनी शिकायत लेकर किसी वरिष्ठ और बड़े अफसर के पास जाता है। मुझे लगा यहाँ अपनी शिकायत लाने वाले लोग निश्चय ही अन्ना टीम को, इस आन्दोलन को सरकार से कहीं बड़ा समझ कर आये हैं। 
इन लोगों में ही एक लडकी थी जो वीलचेयर पर बैठी थी। जब वह कार्यक्रम खत्म होने के बाद लंगर हाल में पहुंची तो मैंने पुछा कि चलने फिरने की लाचारी के बावजूद तुम यहाँ आई हो।...क्यूं आई हो ? पूछते समय मुझे अटपटा जरूर लगा पर तुरंत और कुछ सूझा ही नहीं। जवाब में वह मुस्करा कर बोली मुझे केजरीवाल जी को सुनना था अन्ना आन्दोलन का एक हिस्सा बनना था सो चली आई। फगवाडा से आई आस्था नाम की इस लडकी के परिजन उसके साथ थे। नुस्के चेहरे पर इतनी दूरी से आने की कोई थकावट और न ही गर्मी के मौसम की कोई बेचैनी। मैंने पूछा क्या तुमने पहले कभी केजरीवाल जी को नहीं सुना ? जवाब था सुना है पर केवल टीवी पर। आज आमने सामने पहली बार सुना। मैंने फिर उसकी वीलचेयर की और देखते हुए पूछा की इतनी गर्मी में और इतनी दूरी से यहाँ आना ज़रूरी था क्या ? तुम्हारी हालत देख कर लगता है तुम्हे काफी तकलीफ हुई होगी। जवाब में वह फिर मुस्करा दी और बोली जी ज़रूर हुई है पर देश को बचना हो तो जाब देने को भी तैयार रहना पड़ता है। मैं इस जवाब के लिए तैयार नहीं था। मेरा मन भी भर आया और आँखें भी। जहन में कौंध गया फिल्म नायक का वह सीन जिसमें एक अपाहिज लड़का अनिल कपूर से कहता है मेरा देश भी मेरी तरह लंगड़ा हो गया इसे उठा कर चला दीजिये। इस लडके की यह बात सुन कर ही अनिल कपूर राजनीति में आने को तैयार होता है। उस दिन फिल्म नहीं थी पर आस्था नाम की यह लडकी मुझे अपनी मौन शब्दों से समजा रही थी कि वास्तविक जिंदगी कहीं अधिक रोमांचिक होती है, कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण जिसमें रीटेक का कोई मौका भी नहीं मिलता मौका गंवा दिया तो गंवा दिया। आखिर में मैंने आस्था से इतना ही पुछा की इस आयोजन का पता कैसे लगा / बोली ललित दीदी हैं न उनहोंने बताया था। मैं फिर हैरान था।  जिस ललित को मैं एक आम सी लडकी समझता था वह इतनी प्रभावशाली है कि आस्था जैसे लोग टांग न होते हुए भी फगवाडा से चलकर पटियाला पहुँच सकते हैं ! मुहे लगा कि अब क्रांति आ कर ही रहेगी ! आस्था को वहां देखकर मेरे मन की आस्था भी भी एक बार फिर मजबूत हो गई।  अचना होठों पर आया।..इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विस्वास कमज़ोर हो न ..रेक्टर कथूरिया 
सबंधित पोस्ट।..अवश्य देखें:
 नींव के पत्थर/देश को बचाने की अल्ख जगाता अन्ना आन्दोलन

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